Wednesday 16 April 2014

मीडिया: वकील या जज?

हाँ ये सही है कि मीडिया का काम जनता की नब्ज को पहचानते हुए उनसे जुडी खबरें दिखाना है, मगर यदि कोई उंगली उठाता है मीडिया पर तो इसे सभी स्वीकार करेंगे कि मीडिया को भी आत्ममंथन की जरुरत है, कहीं कहीं मीडिया अब तथ्य रखने के बजाय फैसले सुनाने लगा है, जनता का वकील होने की बजाय जज होने लगा है तभी उस पर उंगलियां उठ रहीं हैं। 
खैर मेरा मुद्दा तो बस इतना है कि जिस मीडिया को देश को एकजुट करने और जाति बंधनों से मुक्त करने की दिशा में कुछ काम करना चाहिए था वही अब उसको बढ़ाने में लगा है, रोज के नए नए सर्वे देखता हूँ जिसमे हर प्रदेश के लोगों को जाति में, धर्म में बाँट कर बताया जाता है, जब ये सुनता हूँ कि इस जगह इतने ब्राह्मण वोट हैं, इतने दलित वोट हैं तो लगता है जैसे लोगों का अपना कोई महत्व नहीं, जैसे सब सिर्फ अपनी जाति देख कर वोट करते हैं, हां ये सही है कि ऐसा होता है काफी जगह, मगर जिस तरह से  साक्षरता का स्तर बढ़ा है, लोगों तक टीवी की पहुँच बढ़ी है, ऐसे माहौल में कम से कम एक कोशिश तो की जा ही सकती है।  ऐसा किया जा सकता था कि आप किसी स्थान विशेष पर जातिगत समीकरणों की बजाय वहां के उम्मीदवारों का पूरा विवरण देते, उनकी आपस में तुलना करते ताकि लोग अपने विवेक से सही या गलत का फैसला कर के वोट कर सकते।
दूसरा एक और चीज़ जो अजीब लगती है वो ये कि कोई भी नेता जब किसी धर्मगुरु से मिलता है तो स्वाभाविक है उसे सभी लोगों से मिलना पड़ेगा ताकि हर किसी तक अपनी बात पहुंचा सके, इसमें कुछ भी गलत नहीं मगर ये बात तभी गलत हो जाती है जब कोई किसी मुस्लिम मौलानाओं से मिलता है, अरे भाई, जब वही नेता किसी हिन्दू धर्मगुरु से मिलता है तब तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती तब तो कुछ नहीं कहा जाता मगर मुस्लिम धर्म गुरुओं से मिलते ही इसे तुष्टिकरण का नाम दे दिया जाता है।

क्या मुस्लिम इस देश के नागरिक नहीं हैं, क्या उनके धर्म गुरु के कहने मात्र से ही सारे मुसलमानों के वोट किसी एक को मिल जायेंगे, यकीं मानिये जितने समझदार आप हैं उतने ही वो भी है, तुम अगर अपने पंडितों की बात मान कर किसी को वोट नहीं देते तो वो भी ऐसा ही करते हैं। इस मामले में मीडिया की जिस तरह से खबरें आती हैं वो साफ़ दिखती है कि उन्होंने इस जहर को बढ़ाने का काम किया है बजाय इसे एक स्वाभाविक क्रिया बताने के।
काश कि जनता से जुड़े मुद्दों पर और उम्मीदवारों के व्यक्तिगत योग्यताओं पर बात होती बजाय सिर्फ एक ही प्रकार की खबरें दिखाने के।  

Wednesday 2 April 2014

उम्मीदें एक बिंदु

जब  उम्मीदें एक बिंदु पर आकर टिक जाती हैं तो ऐसा ही होता है कि निराशा हाथ लगती है, अक्सर ऐसा होता है कि जिस एक चीज़ पर हम निर्भर हो जाएँ वही हमसे छूट जाती है। हम सोचते हैं कि सिर्फ ये हो जाने से सब कुछ आसान हो जायेगा और बस हम अपने हिसाब से जी सकेंगे, और अगले ही पल वो सपना टूट जाता है और इस तरह कि बस उसी ढर्रे पर जीने पर मजबूर होना पड़ता है।
लगता है जैसे सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ होता है, क्यूँ मन की बात मन में ही रह जाती है, क्यूँ जो चाहता हूँ वो कभी होता ही नहीं।
शायद सबको ऐसा लगता है, और यकीं करो एक दिन ऐसा भी आता है जब हमें अहसास होता है कि अगर वैसा ना हुआ होता तो बहुत पीछे रह गये होते, या पीछे ना भी रहते तो भी बस जिंदगी जी रहे होते, वैसे ये यकीन करने के अलावा कोई और रास्ता भी नहीं कि "भगवान् जो करता है अच्छे के लिए करता है बस उस अच्छे की तलाश हम पर या वक्त पर छोड़ देता है"।
इससे बचने का बस एक ही रास्ता है और वो ये कि उम्मीदों को एक बिंदु पर केंद्रित करने की बजाय उसे एक वृक्ष की तरह या फिर हवा की तरह फैला दिया जाए और जिंदगी जी जाए इस तरह कि जैसे उम्मीदें पूरी होतीं रहेंगी रफ्ता रफ्ता, हमें भी कोई जल्दी नहीं, हो गई तो ठीक वरना ख़ुशी से जी तो रहे ही हैं।
वो कहानी तो सुनी होगी ना जिसमे एक राक्षस की जान एक गुड़िया में बसी होती है और जिस दिन वो गुड़िया टूटी उस दिन  उसकी जान भी चली गई, हम क्यूँ वो राक्षस बने, क्यूँ हमारी जान किसी एक चीज़ में बसी हो, हमारी जान तो बसी हो हर एक छोटी सी ख़ुशी में, ऐसे छोटे छोटे लम्हो में जो एक गया तो दूसरा आएगा। कोई और क्यूँ निर्धारित करे कि हमें कब खुश होना है और कब दुखी, ये हक़ सिर्फ हमें है और हमें ये हक़ है कि हम अपनी ख़ुशी बिखरा कर रखें उन सब लोगों कि तरह भी जिनके पास दुनिया की तमाम सुख सुविधाएँ तो नहीं होती मगर वो छोटी छोटी बातों पर अक्सर मुस्कुराते हुए देखे जा सकते हैं, गरीबी तब कही जाती है जब हम खुश होना चाह कर भी खुश ना हो पाएं।
उम्मीद के एक बड़े से बिंदु को हजारों पलों के टुकड़ों में बिखरने के इन्तजार में शुभ रात्रि।