Friday 3 October 2014

भूला नाता

काफी वक्त पहले एक कविता लिखी थी बुजुर्ग दिवस पर, आज याद आ गई तो आप भी पढ़िए,एक दादा का अपने पोते के नाम पत्र:-
भूला नाता
हरपल हरदम खुश ही रहो तुम 
उदासियाँ हो जाएँ अब गुम 
आज का पावन सा है ये दिन 
बिता रहा हूँ खुशियों के बिन 
पास हो मेरे, नहीं तुम्हारे 
पास बचा है समय जरा सा 
इसीलिए मन मेरा है किया 
ख़त लिख दूं एक प्यार भरा सा 
पैदा होते ही दादी ने 
तुमको जब मुझको सम्भलाया 
रूई से कोमल थे तब तुम, 
देख कर मेरा दिल भर आया 
कठोरता से भरे हुए इन 
हाथों से तुम्हे लग ना जाये 
धीरे धीरे यही तो एकदिन 
अनायास ही लत बन जाए
घुटनों चलने लगे थे जब तुम
हर पल पीछे मेरे आते थे 
जहाँ चला जाता था मैं फिर, 
तुम भी वहीँ चले आते थे 
साथ तुम्हारा चाहता था मैं, 
चाहता हूँ मैं तो ये अब भी 
बस में मेरे नहीं है अब कुछ 
बदल गया है अब तो वक्त भी 
पढने लिखने में गये तुम 
दिल-ओ-जान से हो मशगूल 
मम्मी पापा भी चाहते हैं यही, 
दादा को तुम गये हो भूल 
पास ना आना बात ना करना, 
जी लेते हो अब तो मुझ बिन 
कमरे में आये हुए भी 
हो जाते हैं दस दस दिन 
आस में बैठा रहता हूँ मैं, 
तुम आओगे बात करोगे
कुछ पल के ही लिए सही बस 
तुम तो मेरे साथ रहोगे
पिछले साल तक जो 
बादामों का चूरा मुझसे खाते थे
हर दिन उसको खाने के लिए ही 
सामने तुम मेरे आते थे
पिछले कई दिनों से उसको 
खाना तो दूर, बनाता नहीं
क्यूंकि बिना तुम्हारे मुझसे 
अब वो खाया जाता नहीं
बात ज़रा सी है ये इतनी 
लेकिन तुमको पता नहीं है
मेरी बूढी आँखों में झाँकने 
के हेतु जो वक्त नहीं है
मम्मी पापा दोनों तुम्हारे 
देर शाम तक करते नौकरी
याद तुम्हे कर पायें कैसे, 
समय जो उनके पास है नहीं
लेकिन मैं तो दिन भर घर में 
बैठ के क़दमों को सुनता हूँ
तुमसे ही बातें करने के 
नए नए सपने बुनता हूँ
बेटा इतनी सी है तमन्ना, 
दूर मेरा तुम एक गम कर दो
टीवी इन्टरनेट के वक्त में 
थोडा वक्त तुम तो कम कर दो
उस थोड़े से वक्त के लिए, 
पास मेरे तुम तो आ जाना
दोस्त के जैसे बात करेंगे, 
भूल जायेंगे सारा जमाना
अंत में ख़त का करता हूँ अब, 
प्यार सहित तुम्हारा दादा
पूरी कर दो छोटी सी ख्वाहिश, 
याद करो ये भूला नाता

Friday 9 May 2014

तुम्हारी कुछ भी गलती नहीं थी

क्यूँ देखते हो हर बात में सिर्फ अपना अक्स
वो दौर बीत चुका है जब तुम ही दुनिया थे
हर बात शुरू होती थी सिर्फ तुमसे
और सारी कोशिशें भी थी
तुम्हे पाने की उम्मीद से ही 
हां ये सही है कि कोई गलती नहीं है तुम्हारी
मगर ये भी उतना ही सही
कि बदल चुके हैं अब हालात
दिल तो वही है मगर उसे आदत नहीं
तुम्हे किसी और के साथ देखने की
अकेला रह सकता है, खुश ना सही
मगर मशगूल अपनी धुन में ही
जो कहता हूँ वो मैं नहीं होता
वो शख्स कोई और है
चाहे रहता हो मुझ में ही
उसकी बातों से चाहे तुम्हे लगे 
मगर निशाना होता हूँ मैं ही 
 छोड़ रखा है सब कुछ वक्त के भरोसे
तुम्हे दिया है मौका
ताकि आ सके फिर से हसीं

देखी थी तुम्हारी तस्वीर उस शख्स के साथ
लगा जैसे वक्त लगा रहा है मरहम
चेहरे से थोड़ा खुश लग रही थीं तुम
उसके साथ वो तुम्हारा लिखा "हम"
बस उस दिन के बाद रोक लिया खुद को
रोक लिया फिर से जुड़ने से इस पुल को 
रोक लिया इस नदी में बहने से खुद को
डूबना बेहतर लगा
सूखे किनारे पर पहुंचने से
और तुम्हे लगा कि मैं बदल गया
बदला नहीं बस इतनी सी बात है
तुम्हे गिरता देखने से पहले संभल गया

और हां एक आखिरी बात दोहराऊंगा फिर से
तुम हर बात में बिलकुल सही थीं
मैं कुछ भी लिखूं मगर
तुम्हारी कुछ भी गलती नहीं थी

Saturday 3 May 2014

एक महान इंसान

आज सुबह सुबह एक महान इंसान से बात करने का मौका मिला, नाम से अगर गूगल पर सर्च करेंगे तो शायद ही मिल पाएं मगर उनकी बातें सुन कर जरूर लगा कि बहुत महान हैं। और उन महान इंसान ने मुझ जैसे तुच्छ इंसान के आगे अपनी महानता का बखान केवल इसलिए किया ताकि मुझे ये अहसास हो सके कि वो मुझसे बात कर के कितना बड़ा अहसान कर रहे हैं मुझ पर।

अच्छा तो बात को जरा लम्बा ना खींचते हुए सीधा सीधा वो सब कहता हूँ जो वो कहना चाहते थे अपने दिल में:-
" तुम्हे जरा भी अंदाजा है कि तुम किससे बात कर रहे हो, तुम शायद मुझे नहीं जानते इसीलिए मेरी आलोचना कर रहे हो, अरे तुम्हे क्या पता है, मैंने बचपन से लेकर आज तक हज़ारों किताबें पढ़ी हैं वो भी ऐसे ऐसे लेखकों की जिनके नाम तक तुमको नहीं पता होंगे, हज़ारों किलोमीटर का सफर किया है, इस दुनिया के जितने भी बड़े बड़े समझदार लोग है और बुद्धिजीवी हैं वो सब मेरी जान पहचान के हैं, मैंने खूब समाजसेवा के काम किये हैं, मेरे पास बहुत पैसा है मैं चाहता तो ऐशो आराम की जिंदगी बिता सकता था मगर मैं घूमता रहा और गरीबो के बीच में जा जाकर फोटो खिंचवाता रहा, आप मेरी आईडी देखोगे तो उसका सबूत मिल जायेगा, ये मेरा बड्डपन ही तो है जो मैं तुम्हारी फ्रेंड लिस्ट में शामिल हूँ, और क्या बात करते हो यार कि नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल देश का भला करेंगे, देश का भला सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस कर सकती है और आज तक करती भी आई है, तभी तो याद करो एक वो वक्त था जब तुम घर के बाहर नाली में निपटने जाते थे और आज खुद के घर में संडास में बैठे बैठे फेसबुक चला रहे हो, अगर कांग्रेस ना होती तो तुम्हारा बिलकुल भी भला नहीं होता, हां हां जानता हूँ कि लहर चल रही है, मगर ये सब लोग मूर्ख हैं, आने वाले वक्त में इन्हे इनकी गलती का अहसास होगा और पता चलेगा कि मैं कितना महान हूँ, खैर तुमने किया ही क्या है, अपनी जिंदगी ख़राब ही तो की है अभी तक, ना मेरी तरह हज़ारों किताबें पढ़ी ना कोई समाजसेवा का काम किया, अगर किया है तो डालो उसकी फोटो फेसबुक पर, आखिर मुझे भी तो पता चले। " और देखो मैं कितना विनम्र हूँ जो इतना महान होकर भी तुमसे बात कर रहा हूँ।


तारीफ के लायक

मन बहुत भारी हो रहा है, वैसे किसी को लग सकता है कि रात के 1 बजे मन भारी हो रहा है तो जरूर कोई प्यार व्यार का चक्कर होगा मगर ऐसा कुछ नहीं, नींद तो आ रही है मगर सो गया तो मन की बात मन में ही रह जाएगी, लिखने के सिवा कोई और रास्ता भी नहीं खुद का दिल हल्का करने का। बस ऐसा लग रहा है जैसे कुछ किया ही नहीं जिंदगी में अभी तक, कुछ भी ऐसा जिस पर गर्व कर सकूँ, हां वैसे लिखते लिखते याद आया कि कुछ किया तो है जिससे दिल को थोड़ा सुकून मिल रहा है मगर पूरी जिंदगी के लिए उतना काफी नहीं, और ना ही ऐसा जिसे बता कर उसे करने की ख़ुशी को ख़त्म कर दूँ, बस ऐसा कुछ करना है जिससे दिल को भी ख़ुशी मिले और लोग भी प्रेरित हों। कोई ऐसा काम जिसकी लोग तारीफ करें तो लगे जैसे सच्ची तारीफ है, आज किसी दोस्त ने मजाक में कहा कि मैं तारीफ के लायक नहीं, मगर सच कहूँ तो इस एक बात ने पूरी जिंदगी को एक पल में आँखों के सामने लेकर खड़ा कर दिया, सच ही तो कहा उसने कि मैंने ऐसा क्या किया है जिसकी तारीफ की जा सके, बस कुछ एक परीक्षाएं पास की है जो कोई भी पढ़ कर पास कर सकता है, शक्ल सूरत मैंने नहीं बनाई तो उसकी तारीफ मेरी तारीफ नहीं हुई, फिर क्या किया, कुछ भी तो नहीं जिसकी तारीफ की जा सके। बड़ा गर्व करता हूँ खुद ही खुद को लेखक कह कर, मगर क्या इस कलम ने किसी का भला किया है अभी तक, नहीं ना, की है तो सदा खुद की तारीफ या दूसरों की बुराई या अधिक से अधिक समाज में जो फैली बुराई है उसे दिखने की कोशिश की है कभी कभार, मगर इतना काफी नहीं, ऐसा नहीं की तारीफ की जा सके। 

अभी तक बस साधन की तलाश में लगा हूँ, ताकि जो साध्य हैं उन्हें साध सकूँ, मगर इतनी देर हो रही है कि सब्र नहीं किया जा रहा, हिम्मत धीरे धीरे छूट रही है, बस उम्मीद के दम पर कोशिशों में लगा हूँ, लक्ष्य बिलकुल स्पष्ट हैं बस रास्ता ही है जो बार बार अलग अलग मोड़ पर ले जाकर खड़ा कर देता है। इतना यकीं है कि एक दिन वो जरूर आएगा जब अपने लक्ष्य पूरे कर पाउँगा और वो सब कुछ हासिल कर पाउँगा जो सिर्फ अभी तक मन में है, सोचा बहुत बड़ा है और इसीलिए साधन जुटाने में वक्त लग रहा है और वो भी तब जब परिस्थितियां कई बार प्रतिकूल हो जाती हैं। ना तो लेखक बनना लक्ष्य है और ना ही नाम कामना, लक्ष्य तभी बताऊंगा जब उसे हासिल करने की तरफ थोड़ा और आगे बढ़ जाऊंगा। 
आज खुद के साथ उस दोस्त को भी दिल से कहना चाहूंगा कि तुम्हारा बहुत शुक्रिया और हां मैं तुम्हे यकीन दिलाता हूँ कि तुम्हे एक दिन मेरी तारीफ करने लायक जरूर कुछ कर के दिखाऊंगा और शायद तुम्हे ये गर्व करने का मौका भी दे सकूँ कि मैं तुम्हारा दोस्त हूँ। 

Wednesday 16 April 2014

मीडिया: वकील या जज?

हाँ ये सही है कि मीडिया का काम जनता की नब्ज को पहचानते हुए उनसे जुडी खबरें दिखाना है, मगर यदि कोई उंगली उठाता है मीडिया पर तो इसे सभी स्वीकार करेंगे कि मीडिया को भी आत्ममंथन की जरुरत है, कहीं कहीं मीडिया अब तथ्य रखने के बजाय फैसले सुनाने लगा है, जनता का वकील होने की बजाय जज होने लगा है तभी उस पर उंगलियां उठ रहीं हैं। 
खैर मेरा मुद्दा तो बस इतना है कि जिस मीडिया को देश को एकजुट करने और जाति बंधनों से मुक्त करने की दिशा में कुछ काम करना चाहिए था वही अब उसको बढ़ाने में लगा है, रोज के नए नए सर्वे देखता हूँ जिसमे हर प्रदेश के लोगों को जाति में, धर्म में बाँट कर बताया जाता है, जब ये सुनता हूँ कि इस जगह इतने ब्राह्मण वोट हैं, इतने दलित वोट हैं तो लगता है जैसे लोगों का अपना कोई महत्व नहीं, जैसे सब सिर्फ अपनी जाति देख कर वोट करते हैं, हां ये सही है कि ऐसा होता है काफी जगह, मगर जिस तरह से  साक्षरता का स्तर बढ़ा है, लोगों तक टीवी की पहुँच बढ़ी है, ऐसे माहौल में कम से कम एक कोशिश तो की जा ही सकती है।  ऐसा किया जा सकता था कि आप किसी स्थान विशेष पर जातिगत समीकरणों की बजाय वहां के उम्मीदवारों का पूरा विवरण देते, उनकी आपस में तुलना करते ताकि लोग अपने विवेक से सही या गलत का फैसला कर के वोट कर सकते।
दूसरा एक और चीज़ जो अजीब लगती है वो ये कि कोई भी नेता जब किसी धर्मगुरु से मिलता है तो स्वाभाविक है उसे सभी लोगों से मिलना पड़ेगा ताकि हर किसी तक अपनी बात पहुंचा सके, इसमें कुछ भी गलत नहीं मगर ये बात तभी गलत हो जाती है जब कोई किसी मुस्लिम मौलानाओं से मिलता है, अरे भाई, जब वही नेता किसी हिन्दू धर्मगुरु से मिलता है तब तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती तब तो कुछ नहीं कहा जाता मगर मुस्लिम धर्म गुरुओं से मिलते ही इसे तुष्टिकरण का नाम दे दिया जाता है।

क्या मुस्लिम इस देश के नागरिक नहीं हैं, क्या उनके धर्म गुरु के कहने मात्र से ही सारे मुसलमानों के वोट किसी एक को मिल जायेंगे, यकीं मानिये जितने समझदार आप हैं उतने ही वो भी है, तुम अगर अपने पंडितों की बात मान कर किसी को वोट नहीं देते तो वो भी ऐसा ही करते हैं। इस मामले में मीडिया की जिस तरह से खबरें आती हैं वो साफ़ दिखती है कि उन्होंने इस जहर को बढ़ाने का काम किया है बजाय इसे एक स्वाभाविक क्रिया बताने के।
काश कि जनता से जुड़े मुद्दों पर और उम्मीदवारों के व्यक्तिगत योग्यताओं पर बात होती बजाय सिर्फ एक ही प्रकार की खबरें दिखाने के।  

Wednesday 2 April 2014

उम्मीदें एक बिंदु

जब  उम्मीदें एक बिंदु पर आकर टिक जाती हैं तो ऐसा ही होता है कि निराशा हाथ लगती है, अक्सर ऐसा होता है कि जिस एक चीज़ पर हम निर्भर हो जाएँ वही हमसे छूट जाती है। हम सोचते हैं कि सिर्फ ये हो जाने से सब कुछ आसान हो जायेगा और बस हम अपने हिसाब से जी सकेंगे, और अगले ही पल वो सपना टूट जाता है और इस तरह कि बस उसी ढर्रे पर जीने पर मजबूर होना पड़ता है।
लगता है जैसे सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ होता है, क्यूँ मन की बात मन में ही रह जाती है, क्यूँ जो चाहता हूँ वो कभी होता ही नहीं।
शायद सबको ऐसा लगता है, और यकीं करो एक दिन ऐसा भी आता है जब हमें अहसास होता है कि अगर वैसा ना हुआ होता तो बहुत पीछे रह गये होते, या पीछे ना भी रहते तो भी बस जिंदगी जी रहे होते, वैसे ये यकीन करने के अलावा कोई और रास्ता भी नहीं कि "भगवान् जो करता है अच्छे के लिए करता है बस उस अच्छे की तलाश हम पर या वक्त पर छोड़ देता है"।
इससे बचने का बस एक ही रास्ता है और वो ये कि उम्मीदों को एक बिंदु पर केंद्रित करने की बजाय उसे एक वृक्ष की तरह या फिर हवा की तरह फैला दिया जाए और जिंदगी जी जाए इस तरह कि जैसे उम्मीदें पूरी होतीं रहेंगी रफ्ता रफ्ता, हमें भी कोई जल्दी नहीं, हो गई तो ठीक वरना ख़ुशी से जी तो रहे ही हैं।
वो कहानी तो सुनी होगी ना जिसमे एक राक्षस की जान एक गुड़िया में बसी होती है और जिस दिन वो गुड़िया टूटी उस दिन  उसकी जान भी चली गई, हम क्यूँ वो राक्षस बने, क्यूँ हमारी जान किसी एक चीज़ में बसी हो, हमारी जान तो बसी हो हर एक छोटी सी ख़ुशी में, ऐसे छोटे छोटे लम्हो में जो एक गया तो दूसरा आएगा। कोई और क्यूँ निर्धारित करे कि हमें कब खुश होना है और कब दुखी, ये हक़ सिर्फ हमें है और हमें ये हक़ है कि हम अपनी ख़ुशी बिखरा कर रखें उन सब लोगों कि तरह भी जिनके पास दुनिया की तमाम सुख सुविधाएँ तो नहीं होती मगर वो छोटी छोटी बातों पर अक्सर मुस्कुराते हुए देखे जा सकते हैं, गरीबी तब कही जाती है जब हम खुश होना चाह कर भी खुश ना हो पाएं।
उम्मीद के एक बड़े से बिंदु को हजारों पलों के टुकड़ों में बिखरने के इन्तजार में शुभ रात्रि। 


Saturday 29 March 2014

धर्म की खातिर

किसी की जान लेकर बेफिक्री से कैसे जीते हैं
ये कौन लोग हैं जो इंसानियत का लहू पीते हैं

माफ़ी मांग लेने से नहीं जाते दर्द लौट कर कभी
ये बात वही समझेंगे जिन पर वो पल कभी बीते हैं

जायज़ ठहराते हैं अपनी बात को धर्म की खातिर
कोई पूछे तो ज़रा इस धर्म को ये कहाँ से सीखे हैं

आँखे खोलोगे तो दिख जायेगा हर जर्रे में वो ऐ दोस्त
जिसे आसमान में बिठा रखा है वो असल में नीचे है

जीतेगी आखिर में ये अमन की फसलें ही एक दिन
सूख जायेंगे वो पौधे जो तुमने नफरतों से सींचे हैं