Tuesday 15 October 2013

स्वतंत्रता सेनानी

आज ऑफिस में एक शख्स आये, उम्र 115 वर्ष होने में 3 महीने कम, मगर बोलने की और काम करने की ऊर्जा देख कर कोई युवा भी शरमा जाए। उनके बारे में थोडा जाना तो आश्चर्य का ठिकाना ना रहा, कितनी सच्चाई थी वो तो नहीं कह सकता मगर उनके कुर्ते के जेब पर टंगे हुए पंद्रह से बीस कार्ड जिन पर उनका किसी में अशोक गहलोत के साथ तो किसी में कोई और के साथ तस्वीर में नाम और अख़बारों की कटिंग भी थी साथ में। पता चला की स्वतंत्रता सेनानी रह चुके हैं, पैंतालिस वर्ष की उम्र तक भारतीय वायु सेना में पायलट थे, जन्म काशी में और पालन पोषण हैदराबाद में हुआ, फिर परिवार के साथ गुजरात आ गये, उनके माता पिता की अंग्रेजों ने हत्या करवा दी और वो स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ गये, महात्मा गाँधी की शादी में उनके साथ राजकोट जाकर 2 महीने साथ भी रहे, साबरमती के किनारे 6 गोलियां खाई शरीर पर फिर सौराष्ट्र में भी 1 गोली और उसके बाद लाल किले में 5 गोलिया खाने के बाद भी जीवित बच गये तब खुद ने ही अपनी अंतरात्मा की आवाज़ से लिख दिया की मेरी उम्र 147 वर्ष होगी। आज उनकी पूरी पेंशन सरकारी खाते में जमा होती है जिससे उनके निर्देशानुसार धार्मिक और सामाजिक कार्य किये जाते हैं, उनका सारा खर्च सरकार वहन करती है और स्वयं गरीब बच्चों को पढ़ाने, गौशाला चलाने और गरीबो की खातिर एक संस्था चलाते हैं और खुद ही जगह जगह घूम कर इस कार्य के लिए जो भी राशि की आवश्यकता होती है, इक्कठी करते हैं।
उनके नाम और फोटो को बताने के लिए उनकी अनुमति नहीं मिली इसलिए नहीं बता सकता आपको, मगर सच में एक जबर्दस्त अनुभव था, ऐसा महसूस हुआ जैसे उनके आगे हम तो कुछ भी नहीं, उनका निवास जयपुर में है आजकल, फ़ोन नंबर ले लिए हैं, कभी जाकर मिलना हुआ तब और भी बहुत कुछ जानने की इच्छा है। भगवान उन्हें सदा स्वस्थ रखे। जय हिन्द। वन्दे मातरम।

Wednesday 2 October 2013

धर्म का अपमान

हालाँकि धर्म और राजनीती पर ना तो कोई बहस की जा सकती है और ना ही कभी एकमत हुआ जा सकता है मगर फिर भी अपनी बात आपके बीच रखना चाहूँगा, आप इसे ठुकरा देने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र हैं। कई दिनों से देख रहा हूँ कि कोई भी घटना होती है तो कुछ लोग उसे हिन्दू धर्म से जोड़ देते हैं और साथ ही अपनी भावनाएं आहत कर के उसे पूरे धर्म के अपमान के तौर पर दर्शाने लगते हैं। मुझे उस वक्त लगता है जैसे या तो उनकी धार्मिक भावनाएं इतनी कमज़ोर हो गई हैं कि उन्हें कोई भी आहत कर सकता है या फिर किसी और संप्रदाय द्वारा अपनी भावनाएं आहत करने की यह एक नक़ल मात्र है। उनका तर्क होता है कि जब इस्लाम पर कोई पिक्चर बनती है और उसके विरोध में यहाँ हंगामा होता है, यहाँ सार्वजनिक सम्पति को नुकसान पहुँचाया जाता है तो हम भी क्यूँ ना ऐसा ही करें ताकि अगली बार कोई हमारे धर्म का अपमान करने से पहले सौ बार सोचे। मगर मेरा मानना है कि जो गलत है उसकी नक़ल कर के अपने आप को सही साबित नहीं किया जा सकता और जिस धर्म का अपमान हो जाये उस धर्म को ही मिटा देना चाहिए,व्यक्ति का अपमान हो सकता है मगर धर्म का नहीं, आप स्वतंत्र है किसी भी धर्म को मानने के लिए, कोई धर्म आपको बाध्य नहीं करता मानने के लिए, हाँ उसको मानने वाले जरुर कर सकते हैं फिर चाहे वो खुद उसकी हर अच्छी बात को मानते हो या नहीं। रामलीला नाम रखने से और उसके अन्दर हिंसा या आपत्तिजनक दिखाए जाने से तो आपकी भावनाएं आहत होती हैं मगर कोई राम नाम का व्यक्ति खुद राम नाम का मजाक उडाये तब आपकी भावनाएं आराम करती हैं, या फिर तो ऐसा कीजिये ना कि जो भी जेलों में बंद अपराधी हैं उनमे जिनका भी नाम भगवान् के नाम पर है, उसे बदल दीजिये, अगर अपने बेटे का नाम राम रख रहे हैं तो उसे राम जैसे संस्कार दीजिये, और सिर्फ इस नाम की पिक्चर का ही क्यूँ, हर आपत्तिजनक चीज़ का बहिष्कार कीजिये ना। दिखावटी विरोध बंद करो, आपको सिर्फ इसलिए आपत्ति हैं क्यूंकि उसका नाम हमारे धर्म से जुड़े शब्द पर रखा गया हैं, और अगर नाम बदल दिया जाए तब उसमे कुछ भी आपत्ति नहीं फिर आप आराम से उस पिक्चर को देखने जा सकते हो, अजीब सोच है आपकी। वैसे मुझे लगता है कि शब्दों पर, व्यक्तियों पर और प्रतीकों पर अपनी आस्थाएं टिका देने की बजाय हम हर बात में निहित विचार से जुड़ाव रखें, पूजा हो तो उस विचार की ना कि उससे जुड़े प्रतीक की। क्यूंकि जिस दिन प्रतीक खंडित होगा, हमारी आस्था भी खंडित हो जाएगी मगर विचार सदा जीवित रहता है और उसी तरह हमारी आस्था भी सदा जीवित रहेगी, फिर ना तो कोई अपमान ना किसी की भावनाएं आहत। करने दो जो करते हैं, आपको आपत्ति है कि क्यूँ वो अभिनेत्री का नाम राधा रख कर उससे अश्लील नृत्य कराते है जबकि कभी फातिमा नहीं रखते, आपको भी पता है कि वो ऐसा क्यूँ करते हैं, सिर्फ और सिर्फ डर की वजह से, तो आप क्या चाहते हैं कि वो आप से भी डरें या उस भगवान् से डरें, क्यूंकि यदि आप चाहते हैं कि वो भगवान् से डरें तो फिर ये फैसला भी भगवान् के हाथ में ही क्यूँ ना छोड़ दिया जाए कि उसकी सजा वो ही निर्धारित करें। भगवान् इतने कमजोर तो नहीं कि कोई भी उनका अपमान कर सके। जब वसुधैव कुटुम्बकम की बात करते हो तब क्यूँ किसी और वर्ग को अलग कर देते हो, जब पूरी सृष्टि को उसी ने बनाया है और वो ही सबका पिता है तो आप कौन होते हैं उसी की बनाई हुई कृतिओ में भेदभाव करने वाले। और यदि आप फिर भी भेदभाव करते हो तो फिर क्या आप खुद उनका अपमान नहीं कर रहे। बात सोचने वाली है, यदि नफरत फैलाने से फुर्सत मिले तो अमन के बारे में भी जरा सोच कर देखना, अच्छा लगता है।

Friday 27 September 2013

तिरंगे के तीन रंगों का मतलब

बहुत हुआ बच्चों को बहकाना, झूठे अर्थ समझाना। बचपन से सुनता आ रहा हूँ तिरंगे के तीन रंगों का मतलब:- केसरिया त्याग और बलिदान का प्रतीक, सफ़ेद शांति का प्रतीक और हरा धरती की हरियाली का प्रतीक। मगर आज जाकर इसका सही अर्थ समझ आया है। जब से अंग्रेज आये है (उससे पहले से हो तो भी मुमकिन है) धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाया जा रहा है वो भी सिर्फ और सिर्फ राज करने के लिए, वैसे और अधिक साफ़ साफ़ कहूँ तो हिन्दू और मुसलमान को ही लड़ाया जाता है बाकि धर्मो से कोई लेना देना नहीं। और इंसान ने धर्म के नाम पर हर चीज़ का बंटवारा किया फिर चाहे रीती रिवाज़ हो चाहे मान्यताएं। और इसी कड़ी में उन्होंने प्रकृति के रंगों का भी बंटवारा कर दिया, केसरिया या यूँ कहे भगवा हिन्दू ने लिया और हरा मुसलमान ने, इसका कारण मुझे नहीं पता। और तब से कुछ इंसानों द्वारा दोनों के बीच शांति स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। जब आज़ादी की लड़ाई चल रही थी तब भी अंग्रेजों के साथ साथ सत्ता के लालची लोगों ने सत्ता पाने के लिए इसी चाल को अपनाया क्यूंकि किसी इंसान को धर्म के नाम पर आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है, यदि हम किसी को कहें कि ऐसा किसी वैज्ञानिक ने कहा है तो हो सकता है कि वो उस पर कोई प्रश्न चिन्ह लगाये मगर यदि ऐसा कह दिया जाए कि ऐसा हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है तो सारे सवालों की गुंजाइश ही ख़त्म हो जाती है। तो बस इसी चीज़ का फायदा उठा कर इन्हें आपस में लड़ाया जा रहा है। बात जब राष्ट्रीय ध्वज बनाने की आई तो इसी बात को ध्यान में रख कर तिरंगा बनाया गया ताकि समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हो सके यानी की सबसे ऊपर भगवा हिन्दुओं का प्रतीक, सबसे नीचे हरा मुसलमानों का प्रतीक और बीच में सफ़ेद उनमे आपस में शांति बनाये रखने का प्रतीक। अब इस अर्थ में कितनी सच्चाई है ये तो मैं भी नहीं जानता मगर मुझे यही सच लगता है, बाकि यदि आप चाहे तो वही बचपन वाला अर्थ मानते हुए खुश रह सकते हैं।

Wednesday 25 September 2013

क्यों तलाशते हो तुम

क्यों तलाशते हो तुम मुझे मेरी हर कविता में 
कि जैसे लिखी हो मैंने सब अपने ही अनुभवों से 
कभी किसी कविता में बेवफा खुद को पाती हो 
और दर्द भरे दिल को मुझसे जोड़ बैठती हो 
कभी मेरी यादों को जोडती हो हमारी गुजरी बातों से 
उस कविता में हंसने वाले दोनों जैसे हम ही हो 
क्यूँ हर कविता में वो लड़की तुम होती हो 
और हर वो तन्हा सा लड़का मैं ही 
नहीं ऐसा कुछ भी नहीं 
ना मैं तन्हा हूँ, ना अकेला और ना ही दुखी 
बल्कि मस्त हूँ अपनी ही मस्ती में  
वो शख्स कोई और है 
उसे किसी और ने धोखा दिया है 
ना तुम हो, ना मैं 
तुम तो मुझमे हर वक्त हो फिर क्यूँ रहूँ मैं दुखी 
बदल डालो हर कविता का मतलब 
और देखो उन दोनों तन्हा लोगों को 
मेरी तरह सड़क किनारे से 
और रहो खुश क्यूंकि मैं हूँ 
अब भी तुम में ही 

Saturday 14 September 2013

हिंदी दिवस

आज हिंदी दिवस है, 14 सितम्बर 1949 को हिंदी को राजकाज की भाषा घोषित किया गया और हम पागलों की तरह उसे राष्ट्रीय भाषा मान बैठे और उसे अपने स्वाभिमान से जोड़ बैठे, ये तो भला हो उस इंसान का जिसने कुछ दिन पहले एक आरटीआई के माध्यम से ये जवाब पाया कि हिंदी राजकाज की भाषा है, राष्ट्रीय भाषा नहीं। सच में अब दिल को कुछ सुकून आया, कम से कम कुछ तो बोझ हल्का हुआ दिल का, अब शायद हिंदी दिवस पर लोगों के भाषण के बाद "थैंक यू" सुन कर बुरा नहीं लगेगा, क्यों बुरा लगे भाई कौनसी अपनी राष्ट्रीय भाषा है, राजकाज की भाषा थी वो भी आजकल अंग्रेजी में होने लगा है। मुझे लगता है अब वक्त गया है जब हमें इंग्लिश को हमारी राष्ट्रीय भाषा घोषित कर देना चाहिए, कम से कम हम अंग्रेजी बोलने (झाड़ने) वालों के गर्व और अंग्रेजी ना जानने वालों की हीनता को तो न्यायोचित ठहरा पाएंगे, मानसिकता तो अब बदलने से रही, एक हज़ार साल की गुलामी है साहब, अब हमें गुलामी ही रास आती है, किसी अंग्रेज के सामने ना सही, अपनी गली के दुकानदार के सामने तो अंग्रेजी झाड़ सकते हैं।

उस हिंदी को राष्ट्रभाषा मान कर भी क्या फायदा जब किसी की बेईज्जती होती है तो भी कहतें है कि बेचारे की "हिंदी" हो गई। कल किसी से बात की किसी मुद्दे पर तो उसने कहा, " वो क्या है ना 'सर', 'एक्चुअली' लोग बहुत 'इमोशनल' हो गये हैं, उन्हें आप किसी भी दिशा में 'डाइवर्ट' कर सकते हो। ये तो केवल एक पंक्ति है बातचीत की, आप अनुमान लगाइए कि पूरी बात किस भाषा में हुई होगी जिसे ना तो हिंदी कह सकते हैं और ना ही इंग्लिश और यहाँ तो लोग साथ में गुजराती भी 'घुसा' देते हैं। तब तीनों भाषाओँ के मेल से जो खिचड़ी तैयार होती है उसे पता नहीं क्या कहते है मगर ऐसा जरुर लगता है कि दिन ब दिन उसमे अंग्रेजी की मात्रा बढती जा रही है और एक दिन सिर्फ वही बोली जाएगी तब शायद सरकारी विद्यालय भी 'अंग्रेजी मीडियम' होने लगेंगे। फिर पता नहीं निजी विद्यालयों वालों की दुकाने कैसे चलेगी।
अरे मैं तो बहुत दूर तक पहुँच गया। खैर आप लोग अपना दिन 'एन्जॉय' कीजिये, मैं अपना काम करता हूँ। क्यूँ दिल पर लें, हम तो ठंडे लड़कों और गरम लड़कियों वाले जमाने से हैं ना, ओह मेरा मतलब कूल डूड्स और हॉट बेब्स से था, गलती से उनकी हिंदी हो गई। हिंदी दिवस पर ख़ुशी मनाएं या मातम ये सवाल ऐसे ही रहने देते हैं।

अच्छा जी तो जाते जाते आप सभी को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं। हैप्पी हिंदी डे। 

Monday 19 August 2013

भक्त का मतलब

कई दिनों से एक शब्द बड़ा चलन में आ रहा है राजनीती में "अंधभक्त", अब जो ये शब्द इस्तेमाल करते हैं उन्हें कौन समझाए कि भक्त तो अंधे ही होते हैं, अगर भक्त सवाल करने लग जायेगा तो वो भक्त नहीं समर्थक रह जायेगा। भक्त का मतलब ही यही कि जो हर हाल में, हर बात में, हर रूप में और हर कार्य में अपने पूज्य को ही सही माने, पूरी दुनिया एक तरफ और हमारे "आदरणीय" एक तरफ। व्यक्ति या तो भक्त हो सकता है या समर्थक हो सकता है, अंध भक्त जैसा कोई शब्द ही नहीं। अगर आप पूरी जांच पड़ताल कर के, अपने विवेक को आजमा कर किसी बात का समर्थन या विरोध करते हो तो आप इंसान हो वरना अगर बिना इन सब के समर्थन करते हो तो  सिर्फ भक्त हो। व्यक्ति पूजा हमेशा ही घातक रही है और देश को डुबाने वाली रही है, यदि विचारों का समर्थन किया जाए तो कुछ उम्मीद की जा सकती है।
भक्तों ने अपने भगवान् को पाने और उनके गुणगान के भजन लिखने के सिवा क्या कभी समाज का भला किया है? भगवान् ही सब कुछ है, उसकी मर्ज़ी से ही सब कुछ होता है और वो जो करे वो सही, जैसी बातें मुझसे नहीं होती। अगर मुझसे कोई गलती हुई है तो उसकी सज़ा मुझे मिल कर रहेगी और अगर मैंने कोई मेहनत की है तो उसका फल भी जरुर मिलेगा। मैं नास्तिक नहीं बस पुरुषार्थ में यकीं रखने वाला हूँ। भगवान् मेरी मदद तभी करेंगे जब मैं खुद अपनी मदद करने लगूंगा। 
समाज से अलग रह कर संन्यास ले कर भगवान् का भजन कर भी लिया तो अधिक से अधिक क्या होगा भगवान् को पा लूँगा, मगर एक तरफ एक इंसान भूखा मर रहा है और दूसरी तरफ मैं उसे ईश्वर की मर्ज़ी मान कर अपनी भक्ति में लीन रहूँ, ये मुझसे ना होगा। अगर भगवान् ने हमें जन्म दिया है तो किसी न किसी काम के लिए ही दिया होगा, न कि अकर्मण्य होकर सिर्फ उनकी भक्ति करने के लिए। दुनिया में आने का हमारा लक्ष्य सिर्फ भगवान् को पाना होता तो वो हमें इस दुनिया में भेजता ही क्यूँ, अपने पास ही क्यूँ ना रख लेता?

बड़े बड़े भक्तों के नाम मशहूर हुए हैं दुनिया में, मगर क्या किसी ने ऐसा कुछ योगदान दिया है समाज के निर्माण में जिसके आधार पर उनकी तारीफ़ की जाए? जिसने समाज की भलाई के लिए लड़ाई लड़ी उन्हें समाज सेवक कहा जाने लगा, क्यूँ क्या उन्होंने अपने वतन की, इंसानियत की और समाज की भक्ति नहीं की? उन्हें भक्त क्यूँ ना कहा जाए? 

आज भी उस इंसान को बड़े आदर के साथ देखा जाता है जो रोज सुबह जल्दी उठ कर 2 घंटे भगवान् की पूजा करे, जिसे बहुत सारे भजन मुख जबानी याद हों, जो पूजा करने बैठे तो अपनी सुध बुध ही खो दे इतना तल्लीन हो जाए, मगर उस सब का फायदा क्या? भगवान् खुश हो जायेंगे या दुनिया पूजा करने लगेगी हमारी? अगर किसी भूखे को खाना खिला दिया, किसी बच्चे को पढना सिखा दिया, तो क्या भगवान् खुश नहीं होंगे, वो 2 घंटे जो किसी भजन को गाने में गुजरते हैं वही अगर किसी को भोजन कराने में लगेंगे तो यकीन मानिये भगवान् आपसे लाख गुना ज्यादा खुश होंगे और चाहे दुनिया आदर करे ना करे मगर आप खुद अपना आदर करना और खुद पर गर्व करना सीख जाओगे। हो सकता है मैं बात की शुरुआत से अब तक कहाँ का कहाँ आ चूका हूँ मगर वो हर बात जो जरुरी है भक्ति के सन्दर्भ में वो मैंने लिखने की कोशिश की है। आप भी बताइए आपकी नजर में भक्ति क्या है?  

Sunday 11 August 2013

कूल या नामाकूल

कुछ चीजें इतनी तकलीफ देती है मगर उन्हें वक्त के फैसले पर छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। जब हमारे 5 जवानों की और हमारी बहन संतोष की हत्या हुई तो उसी शाम हमने उनको श्रद्धांजलि देने के लिए एक प्रार्थना सभा रखी थी। यहाँ की वस्त्रापुर लेक के मुख्य द्वार पर हम पंद्रह से बीस लोग शामिल हुए, मोमबत्तीयां और हाथ में उनके सम्मान में लिखे पोस्टर के साथ हम सड़क किनारे बैठे। पहले पांच मिनट का मौन रखने के बाद हमने "रघुपति राघव राजा राम" भजन गाना शुरू किया। काफी लोग हमें हैरत भरी नज़रों से देखते हुए जा रहे थे। उनमे से कुछ रुक कर हमें सुन भी रहे थे। हमारे पास में खड़ी एक मक्की का ठेला लगाने वाली बहन लगातार हमारे साथ वो भजन गाये जा रही थी मगर जो सबसे अधिक तकलीफ देने वाली बात लगी वो ये कि उस जगह से कुछ ही दूरी पर एक बड़ा सा मॉल है जहाँ से निरंतर खुद को मॉडर्न, स्टाइलिश, कूल कहने वाले युवक युवतियां निकल रहे थे, कुछ साथ साथ तो कुछ अकेले, और हमें इस तरह सड़क किनारे बैठा देख कर और भारत माँ की जयकार करते देख कर पता नहीं क्यूँ उनके चेहरे पर हसीं आ रही थी। कुछ एक लड़कियों ने तो हमारे साथ जयकारे भी लगाये मगर उसके तुरंत बाद इतनी जोर से हँसी कि जैसे हमारे साथ साथ उन शहीदों से भी उन्हें कोई वास्ता नहीं जिन्होंने हमारे खातिर अपनी जान दे दी। देशभक्ति, भारत माँ, वन्दे मातरम और ये सब बाते उनके लिए कूल नहीं है ना, क्या करें साहब हम ना तो भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं और ना ही उनका विरोध करते हैं अपनी अपनी पसंद है, अभी साथ में भारत माँ की जय कर लो तो अच्छा है वरना यूँ ना हो कि किसी दिन किसी अंग्रेज का संडास साफ़ करते करते पूरी जिंदगी गुलामी में गुजरे। तब दिखाना अपनी कूलनेस, तब हँसना अपनी हालत पर। पर ख़ैर निश्चिंत रहिये हमारे जिन्दा रहते वो नौबत नहीं आएगी आप पर। आप मजे कर सकते हो अभी भी। जय हिन्द। वन्दे मातरम।

Tuesday 30 July 2013

तरक्की

जब भी अपने दफ्तर जाता हूँ तो अक्सर कुछ न कुछ ऐसा नजर आ जाता है जिस पर शायद दुनिया की निगाह या तो पड़ती नहीं या फिर कोई गौर करना नहीं चाहता। खैर इन आँखों में ना जाने क्यूँ किसी की बेबसी, मजबूरी, खुद्दारी और भी ना जाने क्या क्या नजर आ जाती है और फिर अपने आप से नजरें चुराने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता। बात करता हूँ आज की। मेरे दफ्तर जाने के रास्ते में कुल 4 चौराहे आते हैं, बाकि 3 तो इतने व्यस्त और संकरे होते हैं कि किसी के खड़े होने की जगह ही नहीं बचती, मगर जो आखिरी चौराहा होता है वहां काफी जगह है। यूँ समझ लीजिये कि गाडी वालों के अलावा तकरीबन चारों किनारे मिला कर 15 भिखारी खड़े हो सकते हैं। मेरा जिस तरफ से जाना और रुकना होता है वहां अक्सर एक बूढ़ी औरत और एक  बच्चे के भीख मांगने के अलावा एक पति पत्नी हाथ में बच्चों के खिलौने लिए हुए खुद्दारी के साथ बड़ी बड़ी कारों के अन्दर इस उम्मीद से देखते हैं कि शायद आज भर पेट खाना खाने लायक पैसे मिल जाएँ, क्यूंकि मुझे नहीं लगता किसी और चीज़ के लिए उन्हें पैसों की जरुरत होगी, सड़क किनारे फुटपाथ पर ही उनका बसेरा है, जिसमे दो पेड़ों के बीच अपनी चुनरी बांध कर पत्नी अपने बच्चे को उसमे सुला कर खिलौने बेचने में पति का हाथ बटाती है ताकि तीनो का पेट भर सके। बीच बीच में तिरछी नजर से माँ बाप दोनों अपने बेटे को देख लेते हैं ताकि उसका सुरक्षा सुनिश्चित कर लें। अगर कोई गाडी वाला आकर उस पेड़ के पास खड़ा भी होता है तो दोनों की निगाहें बस उसी पर टिकी रहती है और उसके जाने के बाद ही वापस अपने काम पर लगते हैं। हैरानी की बात तो ये है कि ये सब जिस चौराहे पर होता है उसका नाम इनकम टैक्स चौराहा है क्यूंकि वंहा इनकम टैक्स भवन है। जब इनकम टैक्स विभाग का विज्ञापन आता है टीवी में कि देश की तरक्की में योगदान दें अपना आयकर समय पर चुकाएं तो बरबस ही उनकी याद आ जाती है और अपने आप से पूछता हूँ कौनसी तरक्की??  फिर याद आता है दिन ब दिन चौराहे पर रुकने वाली कारों की संख्या बढती जा रही है।

Sunday 28 July 2013

कोई कैसे यकीं कर ले

अपनी ऐशगाह में बैठ कर तुम यूँ बरगलाते हो 
खुद की रौशनी के लिए औरों का दिल जलाते हो 

बहुत मुद्दत से तुमने गरीबों की भूख नहीं देखी 
तुम तो सदा अक्ल के अंधों को ही चराते हो 

कोई कैसे यकीं कर ले अब तुम पर हर दफा
खुद ही कहते हो और खुद ही मुकर जाते हो

शक्ल तुम्हारी कुछ जानी पहचानी सी लगती है
हां तुम ही तो हर पांच साल में लौट कर आते हो

अगर कहते हो खुद को सेवक तो जरा बताओ
अपने घर पर हमेशा ही ये ताले क्यूँ लटकाते हो

सिर्फ जिन्दा लोगों को लूट लेते तो फिर भी ठीक था
तुम तो सुकून भरी लाशों के भी आशियाने चुराते हो

बहुत ढूंढा मगर नहीं मिला तुम्हारा ठिकाना
बस इतना बता दो तुम खाना कहाँ खाते हो

Wednesday 29 May 2013

कब तक शर्म करते रहेंगे अपने भारतीय होने पर?

कब तक शर्म करते रहेंगे अपने भारतीय होने पर?
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७५२ ई० तक इंग्लैण्ड में मार्च ही पहला महीना हुआ करता था और उसी गणित से ७वाँ महीना सितम्बर और दसवाँ महीना दिसम्बर था लेकिन १७५२ के बाद जब शुरुआती महीना जनवरी को बनाया गया तब से सारी व्यवस्था बिगडी़..तो अब समझे कि क्रिसमस को x-mas क्यों कहते हैं."x " जो रोमन लिपि में दस का संकेत है और "mas" यनि मास,यनि दसवाँ महीना..उस समय दिसम्बर दसवाँ महीना था जिस कारण इसका x-mas नाम पडा़..और मार्च पहला महीना इसलिए होता था क्योंकि भारतीय लोग इसी महीने में अपना नववर्ष मनाते थे और अभी भी मनाते हैं..तो सोचिए कि हमलोग बस"

पूरे विश्व को अँधेरी गुफ़ा से निकालकर सूर्य की रश्मि में भिंगोने वाले,जो चारों पैरों पर घुड़कना सीख रहे थे उन्हें उँगली पकड़कर चलना सीखाने वाले हम भारतीयों को आज अपने भारतीय होने पर शर्म महसूस होता है ,हीन भावना से ग्रसित होकर जीवन जी रहे हैं हमसब.... तभी तो हम भारतीय अपना तर्कसंगत नया साल को छोड़कर अंग्रेजों का नया साल मनाते हैं जिसका कोई आधार ही नहीं है.,हम पूजा-पाठ,यज्य-हवन,दान-पुण्य कर घी के दिए को जलाकर अपना जन्म-दिवस बनाने की परम्परा को छोड़कर अंडे से बने गंदे केक पर थूककर बेहुदा और गंदी परम्परा को बडे़ गर्व के साथ निभा रहे हैं,अपनी स्वास्थ्यकर चीजों को छोड़कर रोगों को बुलावा देने वाले चीजों को खाना अपना शान समझते हैं,अपनी मातृभाषा में बात करने में हम अपनेआप को अपमानित महसूस करते हैं और उस भाषा को बोलने में गर्व महसूस करते हैं जिसके विद्वानों को खुद उस भाषा के बारे में पता नहीं, खुद उसे अपनी सभ्यता-संस्कृति के इतिहास की कोई जानकारी नहीं और जो हमारे यहाँ के किसी बच्चे से भी कम बुद्धि रखता है.......... अगर विश्वास नहीं होता तो किसी ईसाई से पूछ्कर देखिए तो कि उनके अराधना-स्थल का नाम चर्च क्यों पडा़,क्रिस्तमस का अर्थ क्या है....?और क्रिसमस को एक्समस(x-mas) क्यों कहा जाता है...? हमलोगों के तो संस्कृत या हिन्दी के प्रत्येक शब्द का अर्थ है क्योंकि सब संस्कृत के मूल धातु से उत्पन्न हुआ है...क्रिसमस को अगर ईसा के जन्मदिवस के रुप में मनाया जाता है तो फ़िर क्रिसमस में तो जन्मदिन जैसा कोई अर्थ नहीं है और उनके जन्म को लेकर तो ईसाई विद्वानों में ही मतभेद है. कोई उनके जन्म को ४ ईसा पूर्व बताते हैं तो कोई कुछ...और ठीक है अगर मान भी लिए कि २५ दिसम्बर को ही ईसा का जन्म हुआ था तो अपना नया साल एक सप्ताह बाद क्यों....?आपको तो नया साल का शुरुआत उसी दिन से करना चाहिए था..!कोई जवाब नहीं है उनके पास लेकिन हमारे पास है...और जिन शब्दों का अर्थ उन्हें नहीं मालूम वो हमें है वो इसलिए कि नहरें नदी के जितना विशाल नहीं हो सकतीं...एक और प्रश्न कि वो लोग अपना अगला दिन और तिथि रात के १२ बजे उठकर क्यों बदलते हैं जबकि दिन तो सूर्योदय के बाद होता है..

तनिक विचार करिए कि अँग्रेजी में सेप्ट(sept) 7 के लिए प्रयुक्त होता है oct आठ के लिए deci दस के लिए तो फ़िर september,october,november & December क्रमशः नौवाँ,दसवाँ,ग्यारहवाँ और बारहवाँ महीना कैसे हो गया.....??सितम्बर को तो सातवाँ महीना होना चाहिए फ़िर वो नौंवा महीना क्यों है,दिसम्बर को तो दसवाँ महीना होना चाहिए फ़िर वो बरहवाँ महीना क्यों है और कैसे.....?कभी सोचा आपने...!!

इसका कारण ये है कि १७५२ ई० तक इंग्लैण्ड में मार्च ही पहला महीना हुआ करता था और उसी गणित से ७वाँ महीना सितम्बर और दसवाँ महीना दिसम्बर था लेकिन १७५२ के बाद जब शुरुआती महीना जनवरी को बनाया गया तब से सारी व्यवस्था बिगडी़..तो अब समझे कि क्रिसमस को x-mas क्यों कहते हैं.....! "x " जो रोमन लिपि में दस का संकेत है और "mas" यनि मास,यनि दसवाँ महीना..उस समय दिसम्बर दसवाँ महीना था जिस कारण इसका x-mas नाम पडा़..और मार्च पहला महीना इसलिए होता था क्योंकि भारतीय लोग इसी महीने में अपना नववर्ष मनाते थे और अभी भी मनाते हैं..तो सोचिए कि हमलोग बसन्त जैसे खुशहाल समय जिसमें पेड़-पौधे,फ़ूल-पत्ते सारी प्रकृति एक नए रंग में रंग जाती है और अपना नववर्ष मनाती है उसे छोड़कर जनवरी जैसे ठंडे,दुखदायी और पतझड़ के मौसम में अपना नया साल मनाकर हमलोग कितने बेवकूफ़ बनते हैं.........सितम्बर यानि सप्त अम्बर यानि आकाश का सातवाँ भाग...भारतीयों ने आकाश को बारह भागों में बाँट रखा था जिसका सतवाँ,अठवाँ,नौंवा और दसवाँ भाग के आधार पर ये चारों नाम हैं...तो अब समझे कि इन चार महीनों का नाम सेप्टेम्बर,अक्टूबर ,नवम्बर और डेसेम्बर क्यों है...!

संस्कृत में ७ को सप्त कहा जाता है तो अँग्रेजी में सेप्ट,अष्ट को ऑक्ट,दस को डेसी...अँग्रेज लोग "त" का उच्चारण "ट" और "द" का "ड" करते हैं इसलिए सप्त सेप्ट और दस डेश बन गया है...तो इतनी समानता क्यों है...??आप समझ चुके होंगे कि मैं किस ओर इशारा कर रहा हूँ.....! अगर अभी भी अस्पष्ट है तो चिंता की बात नहीं आगे स्पष्ट हो जाएगा.....

चलिए पहले हम बात कर रहे थे अपने हीन भावना की तो इसी की बात कर लेते हैं ...हमारे देशवासियों की अगर ऐसी मानसिकता बन गयी है तो इसमें उनका भी कोई दोष नहीं है...भारतीयों को रुग्ण मानसिकता वाले और हीन भावना से भरने का चाल तो १८३१ से ही चला जा रहा है जबसे यहाँ अँग्रेजी शिक्षा लागू हुई....अँग्रेजी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ही यही था कि भारतीयों को पराधीन मानसिकता वाला बना दिया जाय ताकि वो हमेशा अंग्रेजों के तलवे चाटते रहे..यहाँ के लोगों का यहाँ के नारियों का नैतिक पतन हो जाय,भारतीय कभी अपने पूर्वजों पर गर्व ना कर सके,वो बस यही समझते रहे कि अँग्रेजो के आने से पहले वो बिल्कुल असभ्य था उसके पूर्वज अंधविश्वासी और रुढी़वादी थे,अगर अँग्रेज ना आए होते तो हम कभी तरक्की नहीं कर पाते..इसी तर्ज पर उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था लागू की थी और सफ़ल हो भी गए... और ये हामारा दुर्भाग्य ही है आजादी के बाद भी हमारे देश का नेतृत्व किसी योग्य भारतीय के हाथ में जाने के बजाय नेहरु जैसे विकृत,बिल्कुल दुर्बल और रोगी मानसिकता वाले व्यक्ति के हाथ में चला गया जो सिर्फ़ नाम से भारतीय था पर मन और कर्म से तो वो बिल्कुल अँग्रेज ही था...बल्कि उनसे चार कदम आगे ही था..ऐसा व्यक्ति था वो जो सुभाष चन्द्र बोष,भगत सिंह, वीर सावरकर और बाल गंगाधर तिलक जैसे हमारे देशभक्तों से नफ़रत करता था क्योंकि उसकी नजर में वो लोग मजहबी थे.उसकी नजर में राष्ट्रवादी होना मजहबी होना था.वो ये समझता था कि भारतीय बहुत खुशनसीब हैं जो उनके उपर गोरे शासन कर रहे हैं, क्योंकि इससे असभ्य भारतीय सभ्य बनेंगे.. उसकी ऐसी मानसिकता का कारण ये था कि उसने भारतीय शिक्षा कभी ली ही नहीं,अपनी पूरी शिक्षा उन्होंने विदेशों से प्राप्त की थी जिसका ये परिणाम निकला था....चरित्र ऐसा कि बुढा़री में भी इश्कबाजी करना नहीं छोडे़ जब उनकी कमर झुक गयी थी और छडी़ के सहारे चलते थे...भारत के अंतिम वायसराय की पत्नी एडविन माउण्टबेटेन के साथ उनकी रंगरेलियाँ जग-जाहिर हैं जिसका विस्तृत वर्णन एडविन की बेटी पामेला ने अपनी पुस्तक "India remembered" में किया है,,पामेला के पास नेहरु द्वारा उसकी माँ को बक्सा भर-भरकर लिखे गए लव-लेटर्स भी हैं..वो तो भला हो हमारे लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल का जिसके कारण आज कश्मीर भारत में है नहीं तो पंडित जी ने तो इसे अपने प्यार पर कुर्बान कर ही दिया था..और उस लौह पुरुष को भी महात्मा कहे जाने वाले गांधी ने इतना अपमानित किया था कि बेचारे के आँखों से आँसू छलक पडे़ थे..सच्ची बात तो ये थी कि कश्मीर भारत में रहे या पाकिस्तान में इससे इन दोनों(नेहरु,गांधी) को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था...लोग समझते हैं कि अँग्रेजों ने १९४७ में भारत को आजाद कर दिया था पर सच्चाई ये नहीं है..सच्चाई ये है कि उसने नेहरु के रुप में अपना नुमाइंदा यहाँ छोड़ दिया था..वो जानता था कि उसका नुमाइंदा उससे भी ज्यादा निपुणता से भारत देश को बर्बाद करने का काम करेगा....और सच में उसका नुमाइंदा उसकी आशा से ज्यादा ही खरा उतरा.....नेहरु(सीधे-सीधी कहूँ तो पूरे काँग्रेसियों का) का ही ये प्रभाव है कि हम आज तक मानसिक रुप से आजाद नहीं हो पाए अँग्रेजों से......हमारी स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी है कि अमृत भी पीने मिल जाय तो पहले अँग्रेजों से पूछ्ने जाएँगे कि इसे पीयें कि नहीं,,अगर कोई विषैला पदार्थ भी मिल गया तो पहले हम अँग्रेजों से ही पूछेंगे कि इसे त्यागना चाहिए या पी लेना चाहिए....और जिस अँग्रेजों ने आजतक हमलोगों से नफ़रत की कभी हमलोगों की तरक्की सह नहीं पाए,क्या लगता है कि वो हमें हमारे भले की सलाह देंगे....???पूरे विश्व को सभ्यता हमने सिखाई और आज हम उनसे सभ्यता सीख रहे हैं.....ध्यान-साधना,योग,आयुर्वेद ये सारी अनमोल चीजें हमारी विरासत थी लेकिन अँग्रेजों ने हमलोगों के मन में बैठा दिया कि ये सब फ़ालतू चीजें हैं और हमलोगों ने मान भी लिया पर आज जब उनको जरुरत पड़ रही है इनसब चीजों की तो फ़िर से हमलोगों की शरण में दौडे़-भागे आ रहे है और अब हमारा योग योगा बनकर हमारे पास आया तब जाकर हमें एह्सास हो रहा है कि जिसे कँचे समझकर खेल रहे थे हम वो हीरा था...पर अब देर हो चुकी है.....जिस आयुर्वेद का ज्यान सदियों पहले से हमारे हरेक घर के एक-एक बच्चे तक को है कि हल्दी का क्या उपयोग है और नीम का क्या उपयोग है....उस आयुर्वेद के ज्यान को विदेशी वाले अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं जिसके बाद उसका व्यापारिक उपयोग हम नहीं कर पाएँगे.... इस आयुर्वेद का ज्यान इस तरह रच बस गया है हमलोगों के खून में कि चाहकर भी हम इसे भुला नही सकते...आज भले ही बहुत कम ज्यान है हमें आयुर्वेद का पर पहले घर की हरेक औरतों को इसका पर्याप्त ज्यान होता था तभी तो आज भी दादी माँ के नुस्खे या नानी माँ के नुस्खे पुस्तक बनकर छप रहे हैं... उस आयुर्वेद की छाया प्रति तैयार करके अरबी वाले यूनानी चिकित्सा का नाम देकर प्रचारित कर रहे हैं....

आज अगर विदेशी वाले हमारे ज्यान को अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं तो हमारी नपुंसकता के कारण ही ना...?वो तो योग के ज्याता नहीं रहे होंगे विदेश में और जब तक होते तब तक स्वामी रामदेव जी आ गए नहीं तो ये भी किसी विदेशी के नाम से पेटेंट हो चुका होता...हमारी एक और महान विरासत है संगीत की जो मा सरस्वती की देन है किसी सधारण मानवों की नहीं...!!फ़िर इसे हम तुच्छ समझकर इसका अपमान कर रहे हैं....याद है आज से साल भर पहले हमारे संगीत-निर्देशक ए.आर.रहमान (पहले दिलीप कुमार था ) को संगीत के लिए ऑस्कर पुरस्कार दिया गया था...और गर्व से सीना चौडा़ हो गया था हम भारतीयों का...जबकि मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे अपनों ने मुझे जख्म दिया और अँग्रेज उसमें नमक छिड़क रहे हैं और मेरे अपने उसे देखकर खुश हो रहे हैं......किस तरह भींगाकर जूता मारा था अँग्रेजों ने हम भारतीयों के सर पर और हम गुलाम भारतीय उसमें भी खुश हो रहे थे कि मालिक ने हमें पुरस्कार तो दिया.....भले ही वो जूते का हार ही क्यों ना हो....??अरे शर्म से डूब जाना चाहिए हम भारतीयों को अगर रत्ती मात्र भी शर्म बची है हमलोगों में तो......?अगर थोडा़ सा भी स्वाभिमान बचा है हमलोगों में तो...?बेशक रहमान की जगह कोई देशभक्त होता तो ऐसे ऑस्कर को लात मार कर चला आता..क्योंकि उसे पुरस्कार अच्छे संगीत के नहीं दिए गए थे बल्कि उसने पश्चिमी संगीत को मिलाया था भारतीय संगीत में इसलिए मिले उसे वो पुरस्कार...यनि कि भारतीय संगीत कितना भी मधुर क्यों ना हो ऑस्कर लेना है तो पश्चिमी संगीत को अपनाना होगा...सीधा सा मतलब ये है कि हमें कौन सा संगीत पसंद करना है और कौन सा नहीं ये हमें अब वो बताएँगे...इससे बडा़ और गुलामी का सबूत क्या हो सकता है कि हम अपनी इच्छा से कुछ पसन्द भी नहीं कर सकते...कुछ पसंद करने के लिए भी विदेशियों की मुहर लगवानी पड़ती है उसपर हमें....भाई पसंद तो अपनी-अपनी होती है फ़िर इसे कोई अन्य निर्धारित कैसे कर सकता है..उसपर भी उसकी सभ्यताएँ अलग हैं और हमारी अलग,,उसके पसंद अलग हैं और हमारे अलग....अगर कोई भारतीय संगीतग्य हमारी पसंद निर्धारित करे तो कोई बात नहीं पर जिसे संगीत का "क ख ग" भी नहीं पता वो हमें क्या सिखाएँगे...?जहाँ संगीत का मतलब सिर्फ़ गला फ़ाड़कर चिल्ला देना भर होता है वो हमें सिखायेंगे...??ज्यादा पुरानी बात भी नहीं है ये........हरिदास जी और उसके शिष्य तानसेन(जो अकबर के दरबारी संगीतग्य थे) के समय की बात है जब राज्य के किसी भाग में सूखा और अकाल की स्थिति पैदा हो जाती थी तो तानसेन को वहाँ भेजा जाता था वर्षा कराने के लिए..तानसेन में इतनी क्षमता थी कि मल्हार गाके वर्षा करा दे,दीपक राग गाके दीपक जला दे और शीतराग से शीतलता पैदा कर दे तो प्राचीन काल में अगर संगीत से पत्थर मोम बन जाता था जंगल के जानवर खींचे चले आते थे कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये बात कोई भी अनुभव कर सकता है कि किस तरह दिनों-दिन संगीत-कला विलुप्त होती जा रही है.....और संगीत कला का गुण तो हम भारतीयों के खून में है..देख लिजिए किस तरह यहाँ हरेक बच्चा बोलना सीखता नहीं है कि गायक बन जाता है.....किशोर कुमार,उषा मंगेश्कर,कुमार सानू जैसे अनगिनत उदाहरण है जो बिना किसी से संगीत की शिक्षा लिए ही बॉलीवुड में आए थे.....एक और उदाहरण है जब तानसेन की बेटी ने रात भर में ही "शीत राग" सीख लिया था...चूँकि दीपक राग गाते समय शरीर में इतनी उष्मा पैदा हो जाती है कि अगर अन्य कोई शीत राग ना गाए तो दीपक राग गाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी....और तानसेन के प्राण लेने के उद्देश्य से ही एक चाल चलकर उसे दीपक राग गाने के लिए बाध्य किया था उससे ईर्ष्या करने वाले दरबारियों ने...और तानसेन भी अपनी मृत्यु निश्चित मान बैठे थे क्योंकि उनके अलावे कोई और इसका ज्याता(जानकार) था नहीं और रात भर में सीखना संभव भी ना था किसी के लिए पर वो भूल गए थे कि उनकी बेटी में भी उन्हीं का खून था और जब पिता के प्राण पर बन आए तो बेटी असंभव को भी संभव करने की क्षमता रखती है.....--तान सेन के ऐसे सैकडो कहानियाँ हैं पर ये छोटी सी कहानी मैने आपलोगों को अपने भारत के महान संगीत विरासत की झलक दिखाने के लिए लिखी...अब सोचिए कि ऐसे में अगर विदेशी हमें संगीत की समझ कराएँ तो ये तो ऐसा ही है जैसे पोता अपने दादा जी को धोती पहनना सिखाए,राक्षस साधु-महात्माओं को धर्म का मर्म समझाए और शेर किसी हिरण को अपने पंजे में दबोचकर अहिंसा की शिक्षा दे......नहीं..??हमलोगों के यहाँ सात सुर से संगीत बनता है इसलिए सात तारों से बना हुआ सितार बजाते हैं हमलोग,लेकिन अँग्रेजों को क्या समझ में आ गया जो छह तार वाला वाद्य-यंत्र बना लिया और सितार की तर्ज पर उसका नामकरण गिटार कर दिया.....????

इतना कहने के बाद भी हमारे भारतीय नहीं मानेंगे मेरी बात ,,पर जब कोई अँग्रेज कहेगा कि उसने गायों को भारतीय संगीत सुनाया तो ज्यादा दूध निकाल लिया या जब ये शोध सामने आएगा कि भारतीय संगीत का असर फ़सलों पर पड़ता है और वे जल्दी-जल्दी बढ़ने लगते हैं तब हम विश्वास करेंगे......क्यों भाई..?ये सब शोध अँग्रेज को भले आश्चर्यचकित कर दे पर अगर ये शोध किसी भारतीय को आश्चर्यचकित करती है तो ये दुःख की बात नहीं है...??

हमारे देश वासियों को लगता है हमलोग कितने पिछडे़ हुए हैं जो हमारे यहाँ छोटे-छोटे घर हैं और दूसरी ओर अँग्रेज तकनीकी विद्या के कितने ज्यानी हैं,वो खुशनसीब हैं जो उनके यहाँ इतनी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ(buildings) हैं और इतने बडे़-बडे़ पुल हैं........इसपर मैं अपने देश वासियों से यही कहूँगा कि ऊँचे घर बनाना मजबूरी और जरुरत है उनकी,विशेषता नहीं,, हमलोग बहुत भाग्यशाली हैं जो अपनी धरती माँ की गोद मे रहते हैं विदेशियों की तरह माँ के सर पर चढ़ कर नही बैठते....हमलोगों को घर के छत, आँगन और द्वार का सुख प्राप्त होता है..जिसमें गर्मी में सुबह-शाम ठंडी-ठंडी हवा जो हमें प्रकृति ने उपहार-स्वरुप प्रदान किए हैं उसका आनंद लेते हैं और ठंड में तो दिन-दिन भर छत या आँगन में बैठकर सूर्य देव की आशीर्वाद रुपी किरणों को अपने शरीर में समाते हैं,विदिशियों की तरह धूप सेंकने के लिए नंगा होकर समुन्द्र के किनारे रेत पर लेटते नहीं हैं....

रही बात क्षमता की तो जरुरत पड़ने पर हमने समुन्द्र पर भी पत्थरों का पुल बना दिया था और रावण तो पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक सीढी़ बनाने की तैयारी कर रहा था.....तो अगर वो चाहता तो गगन्चुम्बी इमारतें भी बना सकता था लेकिन अगर नहीं बनाया तो इसलिए कि वो विद्वान था.....

तथ्यपूर्ण बात तो ये है कि हम अपनी धरती माँ के जितने ही करीब रहेंगे रोगों से उतना ही दूर रहेंगे और जितना दूर रहेंगे रोगों के उतना ही करीब जाएँगे...

हमारे मित्रों को इस बात की भी शर्म महसूस होती है कि हमलोग कितने स्वार्थी,बेईमान,झूठे,मक्कार, भ्रष्टाचारी और चोर होते हैं जबकि अँग्रेज लोग कितने ईमानदार होते हैं...हमलोगों के यहाँ कितनी धूल और गंदगी है जबकि उनके यहाँ तो लोग महीने में एक-दो बार ही झाडू़ मारा करते हैं............तो जान लिजिए कि वैज्यानिक शोध ये कहती है कि साफ़-सुथरे पर्यावरण में पलकर बडे़ होने वाले शिशु कमजोर होते हैं,उनके अंदर रोगों से लड़ने की शक्ति नहीं होती है दूसरी तरफ़ दूषित वातावरण में पलकर बढ़ने वाले शिशु रोगों से लड़ने के लिए शक्ति-सम्पन्न होते हैं..इसका अर्थ ये मत लगा लिजिएगा कि मैं गंदगी पसन्द आदमी हूँ,मैं भारत में गंदगी को बढा़वा दे रहा हूँ.......मेरा अर्थ ये है कि सीमा से बाहर शुद्धता भी अच्छी नहीं होती...और जहाँ तक भारत की बात है तो यहाँ हद से ज्यादा गंदगी है जिसे साफ़ करने की अत्यंत आवश्यकता है..रही बात झाड़ू मारने की तो घर गंदा हो या ना हो हमें झाड़ू तो रोज मारना ही चाहिए क्योकि झाड़ू मारकर हम सिर्फ़ धूल-गंदगी को ही बाहर नहीं करते बल्कि अपशकुन को भी झाड़-फ़ुहाड़ कर बाहर कर देते हैं तभी तो हम गरीब होते हुए भी खुश रहते हैं...भारतीय को समृद्धि की सूचि में पाँचवे स्थान पर रखा गया था क्योंकि ये पैसे के मामले में भले कम है लेकिन और लोगों से ज्यादा सुखी हैं......और जहाँ तक हमारे बेईमान बनने का बात है तो वो सब अँग्रेजों और मुसलमानों ने ही सिखाया है हमें नहीं तो उसके आने के पहले हम छल-कपट जानते तक नहीं थे..उन्होंने हमें धर्म-विहिन और चरित्र-विहिन शिक्षा देना शुरु किया ताकि हम हिंदू धर्म से घृणा करने लगे और ईसाई बन जायें....उन्होंने नौकरी-आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू कि ताकि बच्चे नौकरी करने की पढा़ई के अलावे और कुछ सोच ही ना पाए.इसका परिणाम तो देख ही रहे हैं कि अभी के बच्चे को अगर चरित्र,धर्म या देशहित के बारे में कुछ कहेंगे तो वो सुनना ही नहीं चाहता है...वो कहता है उसे अभी सिर्फ़ अपने कोर्स की किताब से मतलब रखना है और किसी चीज से कोई मतलब नहीं उसे...अभी की शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नौकरी पाना रह गया है....लोगों को किताबी ज्यान तो बहुत मिल जाता है कि वो डॉक्टर-इंजीनियर,वकील,आई०ए०एस० या नेता बन जाता है पर उसकी नैतिक शिक्षा न्यूनतम स्तर की भी नहीं होती है जिसकारण रोज एक-से-बढ़कर एक अपराध और घोटाले करते रहते हैं ये लोग...अभी की शिक्षा पाकर बच्चे नौकरी पा लेते हैं लेकिन उनका मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं हो पाता है,इस मामले में वो पिछडे़ ही रह जाते हैं जबकि हमारी सभ्यता मे ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे उस व्यक्ति के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता था..उसकी बुद्धि का विकास होता था,उसकी सोचने-समझने की शक्ति बढ़ती थी.....

आज ये अँग्रेज जो पूरी दुनिया में ढोल पीट रहे हैं कि ईसाईयत के कारण ही वो सभ्य और विकसित हुए और उनके यहाँ इतनी वैज्यानिक प्रगति हुई तो क्या इस बात का उत्तर है उनके पास कि कट्टर और रुढी़वादी ईसाई धर्म जो तलवार के बल पर २५-५० की संख्या से शुरु होकर पूरा विश्व में फ़ैलाया गया,,जो ये कहता हो कि सिर्फ़ बाईबल पर आँख बंदकर भरोसा करने वाले लोग ही स्वर्ग जाएँगे बाँकि सब नर्क जाएँगे,,जिस धर्म में बाईबल के विरुद्ध बोलने की हिम्मत बडा़ से बडा़ व्यक्ति भी नहीं कर सकता वो इतना विकासशील कैसे बन गया..??चार सौ साल पहले जब गैलीलियों ने यूरोप की जनता को इस सच्चाई से अवगत कराना चाहा कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तो ईसाई धर्म-गुरुओं ने उसे खम्बे से बाँधकर जीवित जलाए जाने का दण्ड दे दिया .....वो तो बेचारा क्षमा मांगकर बाल-बाल बचा...एक और प्रसिद्ध पोप,उनका नाम मुझे अभी याद नहीं,वे भी मानते थे कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है लेकिन जीवन भर बेचारे कभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए..उनके मरने के बाद उनकी डायरी से ये बात पता चली...क्या ऐसा धर्म वैज्यानिक उन्नति में कभी सहायक हो सकता है.....?ये तो सहायक की बजाय बाधक ही बन सकता है..हिंदू जैसे खुले धर्म को जिसे गरियाने की पूरी स्वतंत्रता मिली हुई है सबको जिसमें कोई मूर्त्ति-पूजा, करता है कोई ध्यान-साधना कोई तंत्र-साधना कोई मंत्र-साधना....ऐसे अनगिनत तरीके हैं इस धर्म में,जिस धर्म में कोई बंधन नहीं,,जिसमें नित नए खोज शामिल किए जा सकते है और समय तथा परिस्थिति के अनुसार बदलाव करने की पूरी स्वतंत्रता है,जिसने सिर्फ़ पूजा-पाठ ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाई,वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया,पूरे विश्व को अपना भाई माना,जिसने अंक शास्त्र,ज्योतिष-शास्त्र,आयुर्वेद-शास्त्र,संगीत-कला,भवन-निर्माण कला,काम-कला आदि जैसे अनगिनत कलाएँ तुमलोगों(ईसाईयों और मुसलमानों) को दी और तुमलोग कृतघ्न, जो नित्य-कर्म के बाद अपने गुदा को पानी से धोना भी नहीं जानते,,हमें ही गरियाकर चले गए,,अगर ईसाई धर्म के कारण ही तुमने तरक्की की तो वो तो १८०० साल पहले कर लेना चाहिए था पर तुमने तो २००-३०० साल पहले जब सबको लूटना शुरु किए और यहाँ(भारत) के ज्यान को सीख-सीखकर यहाँ के धन-दौलत को हड़पना शुरु किए तबसे तुमने तरक्की की...ऐसा क्यूँ..?.ये दुनिया करोडो़ वर्ष पुरानी है लेकिन तुमलोगों को ईसा और मुहम्मद के पहले का इतिहास पता ही नहीं......कहते हो बडे़-बडे़ विशाल भवन बना दिए तुमने.....अरे जाओ जब आज तक पिछवाडा़ धोना सीख ही नहीं पाए,,खाना बनाना सीख ही पाए जो कि अभी तक उबालकर नमक डालकर खाते हो,तो बडे़-बडे़ भवन क्या बनाओगे तुम..एक भी ग्रंथ हैं तुम्हारे पास भवन-निर्माण के...? जो भी छोटे-मोटे होंगे वो हमारे ही नकल किए हुए होंगे........,,प्रोफ़ेसर ओक ने तो सिद्ध कर दिया है कि भारत में जितने भी प्राचीन भवन हैं वो हिन्दू भवन या मंदिर हैं जिसे मुस्लिम शासकों ने हड़प कर अपना नाम दे दिया.....और विश्व में भी जो बडे़-बडे़ भवन हैं उसमें हिंदू शैली की ही प्रधानता है... ये भी हँसी की ही बात है कि मुगल शासक महल नहीं सिर्फ़ मकबरे और मस्जिद ही बनवाया करते थे भारत में...जो हमेशा गद्दी के लिए अपने बाप-भाईयों से लड़ता-झगड़ता रहता था,अपना जीवन युद्ध लड़ने में बिता दिया करते थे उसके मन में अपने बाप या पत्नी के लिए विशाल भवन बनाने का विचार आ जाया करता था...!!इतना प्यार करता था अपनी पत्नी से जिसको बच्चा पैदा करवाते करवाते मार डाला उसने...!!मुमताज की मौत बच्चा पैदा करने के दौरान ही हुई थी और उसके पहले वो १४ बच्चे को जन्म दे चुकी थी......जो भारत को बर्बाद करने के लिए आया था,यहाँ के नागरिकों को लूटकर,लाखों-लाख हिंदुओं को काटकर और यहाँ के मंदिर और सांस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करके अपार खुशी का अनुभव करता था वो यहाँ कोई सृजनात्मक कार्य करे ये तो मेरे गले से नहीं उतर सकता....जिसके पास अपना कोई स्थापत्य कला का ग्रंथ नहीं है जो भारत की स्थापत्य कला को देखकर ये कहने को मजबूर हो गया था कि भारत इस दुनिया का आश्चर्य है,इसके जैसा दूसरा देश पूरी दुनिया में कहीं नहीं हो सकता है वो लोग अगर ताजमहलबनाने का दावा करता है तो ये ऐसा ही है जैसे ३ साल के बच्चे द्वारा दशवीं का प्रश्न हल करना...दुःख तो ये है कि देश आजाद होने के बाद भी मुसलमानों को खुश रखने के लिए इतिहास में कोई सुधार नहीं किए हमारे मुसलमान और ईसाई भाईयों के मूत्र-पान करने वाले हमारे राजनीतिक नेताओं ने......आज जब ये सिद्ध हो चुका है कि ताजमहल शाजहाँ ने नहीं बनवाया बल्कि उससे सौ-दो सौ साल पहले का बना हुआ है तो ऐसे में अगर सरकार सच्चाई लाने की हिम्मत करती तो क्या हम भारतीय गर्व का अनुभव नहीं करते...?क्या हमारी हीन भावना दूर होने में मदद नहीं मिलती...?ताजमहल सात आश्चर्यों में से एक है ये सब जानते हैं पर सात आश्चर्यों में ये क्यों शामिल है ये कितने लोग जानते हैं...?इसके शामिल होने का कारण है इसकी उत्कृष्ट स्थापत्य कला...इसकी अद्भुत कारीगरी को अब तक आधुनिक इंजीनियर समझने की कोशिश कर रहे हैं..जिस प्रकार कुतुबमीनार के लौह-स्तम्भ की तकनीक को समझने की कोशिश कर रहे हैं जो कि अब तक समझ नहीं पाए हैं.(इस भुलावे में मत रहिएगा कि कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन एबक ने बनवाया था)मोटा-मोटी तो मैं इतना ही जानता हूँ कि यमुना नदी के किनारे के गीली मुलायम मिट्टी को इतने विशाल भवन के भार को सहन करने लायक बनाना,पूरे में सिर्फ़ पत्थरों का काम करना समान्य सी बात नहीं है...इसको बनाने वाले इंजीनियर के इंजीनिरिंग प्रतिभा को देखकर अभी के इंजीनियर दाँतों तले अपनी उँगली दबा रहे हैं...अगर ये सब बातें जनता के सामने आएगी तभी तो हम अपना खोया हुआ आत्मविश्वास प्राप्त कर पाएँगे....१२०० सालों तक हमें लूटते रहे लूटते रहे लूटते रहे और जब लूट-खसोट कर कंगाल बना दिया तब अब हमें एहसास करा रहे हो कि हम कितने दीन-हीन हैं और उपर से हमें इतिहास भी गलत ही पढा़ रहे हो इस डर से कि कहीं फ़िर से अपने पूर्वजों का गौरव इतिहास पढ़कर हम अपना आत्म-विश्वास ना पा लें.....! अरे अगर हिम्मत है तो एक बार सही इतिहास पढा़कर देखो हमें.....हम स्वभिमानी भारतीय जो सिर्फ़ अपने वचन को टूटने से बचाने के लिए जान तक गँवा देते थे इतने दिनों तक दुश्मनों के अत्याचार सहते रहे तो ऐसे में हमारा आत्म-विश्वास टूटना स्वभाविक ही है...हम भारतीय जो एक-एक पैसे के लिए ,अन्न के एक-एक दाने के लिए इतने दिनों तक तरसते रहे तो आज अगर हीन भावना में डूब गए,लालची बन गए,स्वार्थी बन गए तो ये कोई शर्म की बात नहीं...ऐसी परिस्थिति में तो धर्मराज युधिष्ठिर के भी पग डगमगा जाएँ ...आखिर युधिष्ठिर जी भी तो बुरे समय में धर्म से विचलित हो गए थे जो अपनी पत्नी तक को जुएँ में दाँव पर लगा दिए थे.....!

चलिए इतिहास तो बहुत हो गया अब वर्त्तमान पर आते हैं...--------

वर्त्तमान में आपलोग देख ही रहे हैं कि विदेशी हमारे यहाँ से डॉक्टर-इंजीनियर और मैनेजर को ले जा रहे हैं...इसलिए कि उनके पास हम भारतीयों की तुलना में दिमाग बहुत ही कम है...आपलोग भी पेपरों में पढ़ते रहते होंगे कि अमेरिका में कभी अमेरिका में गणित पढा़ने वाले शिक्षकों की कमी हो जाती जिसके लिए वो भारत से शिक्षक की मांग करते हैं तो कभी ओबामा भारतीय बच्चों की प्रतिभा से कर डर कर अमेरिकी बच्चों को सावधान होने की नसीहत देते हैं... पूर्वजों द्वारा लूटा हुआ माल है तो अपनी कम्पनी खडी़ कर लेते हैं लेकिन दिमाग कहाँ से लाएँगे.....उसके लिए उन्हें यहीं आना पड़ता है...हम बेचारे भारतीय गरीब पैसे के लालच में बडे़ गर्व से उनकी मजदूरी करने चले जाते थे पर अब परिस्थिति बदलनी शुरु हो गयी है अब हमारे युवा भी विदेश जाने के बजाय अपने देश की सेवा करना शुरु कर दिए हैं..वो दिन दूर नहीं जब हमारे युवाओं पर टिके विदेशी फ़िर से हमारे गुलाम बनेंगे...फ़िर से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूरे विश्व पर पहले हमारा शासन चलता था जिसका इतिहास मिटा दिया गया है....लेकिन जिस तरह सालों पहले हुई हत्या जिसकी खूनी ने अपने तरफ़ से सारे सबूत मिटा देने की भरसक कोशिश की हो,,उसकी जाँच अगर की जाती है तो कई सुराग मिल ही जाते हैं जिससे गुत्थी सुलझ ही जाती है...बिल्कुल यही कहानी हमारे इतिहास के साथ भी है..... जिस तरह अब हमारे युवा विदेशों के करोडो़ रुपए की नौकरी को ठुकराकर अपने देश में ही इडली,बडा़ पाव सब्जी बेचकर या चलित शौचालय,रिक्शा आदि का कारोबार कर करोडो़ रुपए सलाना कमा रहे है...ये संकेत है कि अब हमारे युवा अपना खोया आत्म-विश्वास प्राप्त कर रहे हैं और उनमें नेतृत्व क्षमता भी लौट चुकी है तो वो दिन दूर नहीं जब पूरे विश्व का नेतृत्व फ़िर से हम भारतीयों के हाथों में होगा और हम पुनः विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीन होंगे.....भारतीय प्रतिभा के धनी होते हैं बस अभी हमें पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं..जितनी सुविधा अँग्रेजों को मिलती है उसका अगर एक चौथाई भी भारतीयों को मिल जाय तो इसके सामने किसी की एक ना चले.....इसका उदाहरण भी है कि कुछ दिन पहले अमेरिका में एक सर्वे में देखने को मिला था जिसमें अमेरिका के नागरिकों को आय के आधार पर बाँटा गया था..उसमें सबसे उपर एक लाख डालर से ज्यादा आय वाले वर्ग में ४६% यहूदी और ४३% हिंदू हैं..(ये यहूदी वही यदु वंश के लोग हैं जो महाभारत के भयानक युद्ध के बाद जब यहाँ की धरती आण्विक विकिरणों से पूरी तरह दूषित हो गयी थी तो यहाँ की धरती को छोड़कर विश्व के अन्य भागों में जाकर बस गए थे) फ़िर ७५,००० से एक लाख की सूची में भी सबसे ज्यादा हिंदू ही थे २२%और नीचे से दो पायदानों ३०,००० से कम आय वालों में ईसाई ४७% और मुस्लिम ३५% थे.इस सूची में हिंदु केवल ९% थे...-ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब अवसर मिला है तो भारतीयों ने अपने आप को श्रेष्ठ साबित कर दिया है...फ़िर भी भारत में रहने वाले हम भारतीय हीन भावना से उबर नहीं पाते....बहुत लोग बोलते हैं कि विदेशी कितने लम्बे-चौडे़ शरीर वाले होते हैं और हम भारतीय कितने दुबले-पतले छोटे शरीर वाले....!!मै उनसे यही कहूँगा कि भगवान ने विशाल शरीर दानवों को दिया था,,मानवों को तो उसने बुद्धि दी थी और बुद्धि बल शारीरिक बल से श्रेष्ठ होता है ये सभी जानते हैं...दानवों में सिर्फ़ शारीरिक बल था पर ना तो उसके पास चरित्र बल था और ना ही बुद्धि क्योंकि शारीरिक बल चरित्र और बुद्धि का दुश्मन होता है दूसरी तरफ़ मानवों में शारीरिक बल भले बहुत कम था पर इसमें चरित्र बल और बुद्धि बहुत ज्यादा थी देवताओं से भी ज्यादा...ये भी सार्वभौमिक सत्य(Universal truth) है कि जिसका आकार जितना बढ़ता जाता है उसका गुण भी घटता जाता है....इसकी पुष्टि आप अपने आस-पास ही कर लिजिए - -देशी फ़ल और सब्जियाँ भले आकार में छोटी होती हैं पर काफ़ी स्वादिष्ट होते हैं दूसरी तरफ़ विदेशी फ़ल आकार में भले ही बडे़ होते हैं पर स्वाद के मामले में लगभग शून्य ही होते है...देशी गाय या मुर्गे की ही तुलना करके देख लिजिए...भारतीय देशी गाय दूध भले ही कम दे पर उसकी गुणवत्ता के सामने किसी और दूध की तुलना ही नहीं है...आप किसी भी पशु-पक्षी में देख लो कि हमारे देशी कितने गुणी और अंदर से कितने मजबूत होते हैं...उनमें रोगो-वोग भी जल्दी नहीं होते पर विदेशी पशु-पक्षी को देख लो..एक बच्चे की तरह लालन-पालन किया जाता है फ़िर भी क्या हाल है उनका.....!!बर्ड-फ़्लू जैसा भयानक रोग हमारे मुर्गे-मुर्गी में तो नहीं फ़ैला कभी....!!इनसब को देखकर आप आदमियों का भी अंदाजा लगा सकते हो..........

चलिए कुछ और तथ्य भारतीयों की महानता के बारे में

विश्व के १० शीर्ष धनी व्यक्तियों में ४ भारतीय हैं.लक्ष्मी मित्तल जो विश्व में पाँचवे हैं वो इंग्लैण्ड में पहले स्थान पर यनि सबसे ज्यादा धनी व्यक्ति हैं..और जहाँ तक मैं जानता हूँ तो बहुत दिन से वो इस स्थान पर हैं..

विश्व का सबसे महँगा घर मित्तल जी का ही है जो इंगलैण्ड में बना हुआ है जिसकी कीमत ७०करोड़ पॉण्ड है...

Hp (कमप्युटर बनाने वाली कम्पनी) के जेनेरल मैनेजर राजीव गुप्ता हैं जो भारतीय हैं...

पेंटियम चिप(Pentium chip) जिस पर अभी ९०% कमप्युटर काम करते हैं के निर्माता विनोद दह्म हैं(ये भी भारतीय हैं)

हॉटमेल(hotmail) के संस्थापक(founder)और निर्माता( creator) सबीर भाटिया भारतीय ही हैं...

अमेरिका के ३८% डॉक्टर और १२% वैज्यानिक भारतीय हैं..(आज से ६-७ साल पहले मैंने किसी पत्रिका में ये आँकडा़ ५०% देखा था कि अमेरिका में ५०% डॉक्टर और वैज्यानिक भारतीय मूल के हैं..)

पूरे विश्व में भारतीयों की स्थिति.- IBM में नौकरी करने वालों में २८% "intel"में १७% "NASA"में ३६% और Microsoft में ३४%

Sun Microsystems" के सह-संस्थापक--विनोद खोसला

फ़ॉर्चून मैग्जीन के नए रिपोर्ट के अनुसार अजीज प्रेमजी दुनिया के तीसरे धनी व्यक्ति हैं जो विप्रो के CEO हैं..

AT & T-Bell जो कि C,C++ जैसे कमप्युटर भाषा के निर्माता हैं के अध्यक्ष --अरुण नेत्रावाली

Microsoft Testing Director of window 2000 ---- - सन्जय तेजव्रिका

1. Chief Executive of CitiBank,Mckensey & Stanchart--- Victor Menezes,Rajat Gupta & Rana Talwar..

आईटी क्षेत्र में तो भारत नम्बर एक है ही पर किसी भी क्षेत्र में आप देख लो १ से १० में होंगे ही..एविएशन क्षेत्र में नौवें पर मध्यम तथा भारी वाहनों में चौथे पर कार में ग्यारहवाँ दोपहिया और तीनपहिया में एशिया में पहले स्थान पर ...

अमेरिका और जापान के बाद भारत ही ऐसा देश है जिसने खुद से सुपर कमप्युटर का निर्माण किया है.

इस तरह एक-एक कर भारत की वर्त्तमान उपलब्धियों को गिनाना संभव नहीं है

चलिए अब कुछ पौराणिक उपलब्धियाँ--

शतरंज का आविष्कार भारत में ,

दुनिया को दशमलव पद्धति,अंक पद्धति,आधारीय पद्धति का ज्यान हमने दिया..

दुनिया को शून्य(आर्यभट्ट) का ज्यान हमने दिया...

बीजगणित(algebra),त्रिकोणमिति जिससे जिसको अँग्रेज ट्रिगोनोमेट्री(trigonometry) कहते हैं,कलन गणित जिसका अँग्रेजी में नामकरण हो गया केलकुलस(calculas)...ये सारी चीजें विश्व को भारतीयों की ही देन हैं....द्विघातीय समीकरण श्रीधराचार्य ने ११वीं सदी में ही दिया था..ग्रीक या रोम वाले सबसे बडी़ संख्या 10*6(ten to the power six) तक का ही उपयोग कर पाए थे और वर्त्तमान में भी10*12 तक का ही जिसे टेरा कहा जाता है जबकि हमलोगों ने 10*53 का उपयोग किया था,इसका भी विशेष नाम है.(पर वो विशेष नाम मुझे नहीं पता इसलिए नहीं लिखे)

आज जिसे पाइथागोरस सिद्धांत का नाम दिया जाता है या ग्रीक गणितज्यों की देन कहा जाता है वो सारे भारत में बहुत पहले से उपयोग में लाए जा रहे थे....इसमेम कौन सी बडी़ बात है अगर ये कहा जाय कि उनलोगों ने यहाँ से नकल कर अपनी वाहवाही लूट ली...

पाई का मान सबसे पहले बुद्धायन ने दिया था पाइथागोरस से कई सौ साल पहले..

अपनी कक्षा में पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने की अवधि हमारे गणितज्य भष्कराचार्य ने हजारों साल पहले ही दे दिया था जो अभी से ज्यादा शुद्ध है........365.258756484 दिन

विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला में स्थापित हुआ था ७००ईसा पूर्व जिसमें पूरे विश्व के छात्र पढ़ने आया करते थे तभी तो इसका नाम विश्वविद्यालय पडा़...(इसी विश्वविद्यालय को अँग्रेजी में अनुवाद करके यूनिवर्सिटी नामकरण कर लिया अँग्रेजों ने..)इसमें ६० विषयों की पढा़ई होती थी..इसके बाद फ़िर ३००साल बाद यानि ४०० ईसा पूर्व नालंदा में एक विश्वविद्यालय खुला था जो शिक्षा के क्षेत्र में भारतीयों की महान उपलबद्धि थी.. {*{एक मुख्य बात और कि हमारे महान भारतीय परम्परा के अनुसार चिकित्सा और शिक्षा जैसी मूलभूत चीजें मुफ़्त दी जाती थी इसलिए इन विश्वविद्यालयों में भी सारी सुविधाएँ मुफ़्त ही थी,,रहने खाने सब चीज की...इसमें प्रतिस्पर्द्धा के द्वारा बच्चों को चुना जाता था..इस विश्वविद्यालय की महानता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यहाँ पढ़ने को इच्छुक अनगिनत छात्रों को दरबान से शास्त्रार्थ करके ही वापस लौट जाना पड़ता था..आप सोच सकते हैं कि जिसके दरबान इतने विद्वान हुआ करते थे उसके शिक्षक कितने विद्वान होते होंगे...यहाँ के पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें थी कि जब फ़िरंगियों नेर इसमें आग लगा दी तो सालों साल तक ये जलता ही रहा..

सभी यूरोपीय भाषाओं की जननी संस्कृत है.और १९८७ ई० में फ़ोब्स पत्रिका ने ये दावा किया था कि कमप्युटर लैंग्वेज की सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत है....

मनुष्यों द्वारा ज्यात जानकारी में औषधियों का सबसे प्राचीन ग्रंथ आयुर्वेद जिसे चरक जी ने २५००ई०पूर्व संग्रहित किया था.उन्हें चिकित्सा-शास्त्र का पिता भी कहा जाता है..{*{पर हमारे धर्मग्रंथ के अनुसार तो आयुर्वेद हजारों करोडो़ साल पहले धन्वन्तरि जी लेकर आए थे समुंद्र-मंथन के समय}*}

शल्य चिकित्सा{[अभी इसी शल्य का नाम सर्जरी(surgery) हो गया है अँग्रेजी में]} का पिता शुश्रुत को कहा जाता है..२६०० साल पहले ये और इसके सहयोगी स्वास्थ्य वैज्यानिक जटिल से जटिल ऑपरेशन किया करते थे जैसे-सिजेरियन(ऑपरेशन द्वारा प्रसव),,कैटेरेक्ट(आँखों का आपरेशन),क्रित्रिम पैर,टूटी हड्डी जोड़ना,मूत्राशय का पत्थर..इन सबके अलावे मस्तिष्क की जटिल शल्य क्रिया तथा प्लास्टिक सर्जरी भी.......१२५ से ज्यादा प्रकार के साधनों का उपयोग करते थे अपने शल्य-क्रिया के लिए वे..इसके अलावे भी उन्हें इन सब चीजों की भी गहरी जानकारी थी..--anatomy(जंतुओं और पादपों की संरचना का ज्यान),,physiology(प्राणियों के शरीर में होने वाली सभी क्रियाओं का विज्यान),etiology(रोग के कारण का विज्यान),embryology(भ्रूण-विग्यान),metabolism,पाचन,जनन,प्रतिरक्षण आदि आदि...सीधे-सीधी कहूँ तो चिकित्सा सम्बंधी शायद ही ऐसा कोई ज्यान हो जो भारतीयों को ज्यात ना होगा..ये उतना विकसित था जितना अभी भी नहीं है...हमलोगों की एक कथा के अनुसार तो च्यवन ऋषि जडी़-बूटी का सेवन करके वृद्ध से युवक बन गए थे जिसके नाम पर अभी भी च्यवन-प्राश बाजार में बेचा जा रहा है...

पाँच हजार साल पहले जब अन्य देशों में लोग जंगली बने हुए थे उस समय हमारे यहाँ सिंधु घाटी और हड़प्पा की संस्कृति काफ़ी उन्नत अवस्था में थी..(हलांकि प्रमाण भले ही ५००० साल पहले तक का उपलब्ध हो पर हमारी सभ्यता-संस्कृति इससे भी पुरानी है)

६००० साल पहले सिंधु नदी के किनारे नेविगेशन(समुंद्री यातायात या परिवहन) का विकास हो चुका था..उस समय सारे विश्व को विशाल बरगद वृक्ष के लकडी़ का नाव बनाकर भारत ही दिया करता था....ये शब्द नेविगेशन संस्कृत के नवगातिह से बना है..नौसेना जिसका अँग्रेजी शब्द नेवी(navy) है वो भी हमारे संस्कृत शब्द nau (नौ) से बना है..

सबसे पहला नदी पर बाँध सौराष्ट्र में बना था...इससे पहले के इतिहास का साक्ष्य भले ना हो पर ये सब कला इससे भी काफ़ी पुरानी है..अज भले ही भारत की प्राचीन उपलब्धियों को गिनाना पड़ रहा है क्योंकि काफ़ी लम्बे सालों के प्रयास से दुश्मनों ने इसे लगभग विलुप्त कर दिया गया है नहीं तो इसे गिनाने की जरुरत नहीं पड़ती फ़िर भी अभी भी ये संभव नहीं है कि कोई हमारी उपलब्धियों को १०-१५ वाक्य लिखकर गिना दे..ये तो अनगिनत हैं.......

अभी सब भारत को भले ही गरीब-गरीब कहकर मजाक उडा़ ले पर उस समय सारा विश्व इसपे अपनी नजरें गडा़ए रहता था..कोलंबस और वास्कोडिगामा भारत के बेशुमार धन को ही देखकर ही तो लालच में पड़ गया था तभी तो उस दुष्कर अनजान यात्रा पर निकल पडा़ जिसमें अगर उसका भाग्य ने साथ ना दिया होता तो जीवन भर समुंद्र में ही भटक-भटक कर अपने प्राण गँवा देता...और मैंने तो ये भी सुना है कि अँग्रेज १७ दिन तक या शायद एक-डेढ़ महीने तक सोना ढोता रहा था फ़िर भी यहाँ का सारा सोना इंग्लैण्ड ना ले जा पाया..वैसे छोडि़ए अँग्रेजों की बात को ये तो साले चोर-डकैत होते ही हैं अभी भले हमलोगों को चोर-डकैत कहता रहता है....बात करते हैं हमारे धर्मराज युधिष्ठिर की जिन्होंने राजसूय यज्य में सैकडो ब्राह्मणों को सोने की थाली में भोजन करवाया था और फ़िर वो थाली उन्हें दान में दे दी थी....और ये अँग्रेज जब हमलोगों को लूट रहे थे उस समय वो असभ्य,बहशी,लूटेरा,लालची,चोर-डकैत नहीं था अब जब हमलोगों के पास कुछ बचा नहीं लूटने को और उसके पास धन-दौलत का ढेर लग गया तो उसे डर लगने लगा कि कहीं उससे लूटा हुआ धन हमलोग छीन ना लें तो हमलोग को चोर-बदमाश कहकर बदनाम करने लगे...अभी अब शरीफ़ और सभ्य बनते हो....ये तो वही बात हुई कि १०० चूहे खाकर बिल्ली(जो अब शिकार करने में अक्षम हो गयी हो)हज करने को चली.......

चलिए अब कुछ उदार विदेशियों द्वारा भारत की महानता की स्वीकोरोक्ति---

आइंस्टीन जी ने कहा था कि हमलोग भरतीयों के कृतघ्न हैं जिसने हमें अंकशास्त्र के ज्यान दिए नहीं तो कोई भी वैज्यानिक खोज या सिद्धान्त संभव ना हो पाता..

we owe a lot to the indians,who taught us how to count,without which no wortwhile scientific discovery could have been made...

मार्क ट्वैन जिसने कहा था कि सारे ज्यान के खजाने भारत में ही हैं और मानव का इतिहास,भाषा और परम्परा का जन्म स्थान भारत ही है....

India is the credal of the human race,the birthplace of human speech,the mothr of history,the grandmother of legend,and the great grandmother of tradition.our most valuable and most instructive materials in the history of man are treasured up in India only...

हु शिह,चीन का भूतपूर्व राजदूत जिन्होंने अमेरिका को कहा था कि भारत ने चीन को २००० साल पहले ही जीत लिया है..भारत की सभ्यता ने चीन की सभ्यता पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है जिसके लिए उसे एक सैनिक का भी उपयोग नहीं करना पडा़.........तो भई चीन ही क्या,,चीन जापान थाईलैण्ड जितने भी बौद्ध देश हैं सबको ज्यान बुद्ध ने दिया और उस बुद्ध को ज्यान हमने दिया..आखिर बुद्ध जी ने यहीं से तो ज्यान प्राप्त किए थे और यहीं की तो सभ्यता संस्कृति ले गए थे....

फ़्रेंच विद्वान रोमैन रोनाल्ड का कथन--जबसे मनुष्य का अस्तित्व इस पृथ्वी पर आया तबसे अगर उसके सपने साकार होने शुरु हुए तो वो जगह पृथ्वी पर ये भारत ही है....—

if there is one place on the face of earth where all the dream of living men have found a home from the very earliest days when man began the dream of existence,it is India..

आज भारतीयों की मनःस्थिति ही ऐसी हो गयी कि अपना लोग कितना भी कोछ बोल ले उसपर तब तक प्रभाव नहीं पड़ता है जबतक कि बाहर वाला उसका समर्थन ना कर दे भले ही वो बाहर वाला हमारे अपने की तुलना में कितना ही कम अनुभवी या ज्यानी क्यों ना हो इसलिए इन विदेशियों का उदाहरण देना पडा़....

जिस तरह हरेक के लिए दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है वैसे हमलोगों के १२०० सालों से ज्यादा रात का समय कट चुका है अब दिन निकल आया है...इसका उदाहरण देख लो मित्र कि झारखण्ड राज्य की जनसँख्या ३ करोड़ की नहीं है और यहाँ ४००० करोड़ का घोटाला हो जाता है फ़िर भी ये राज्य प्रगति कर रहा है..इसलिए अपने पराधीन मानसिकता से बाहर बाहर आओ,डर को निकालो अपने अंदर से.हमें किसी दूसरे का सहारा लेकर नहीं चलना है..खुद हमारे पैर ही इतने मजबूत हैं कि पूरी दुनिया को अपने पैरों तले रौंद सकते हैं हम..हम वही हैं जिसने विश्वविजेता का सपना देखने वाले सिकंदर का दम्भ चूर-चूर कर दिया था गौरी को १६ बार अपने पैरों पर गिराकर गिड़गिडा़ने को मजबूर किया और जीवनदान दिया जिस प्रकार बिल्ली चूहे के साथ खेलती रहती है वैसे ही,,ये तो दुर्भाग्य था हमारा जो शत्रु के चंगुल में फ़ँस गए क्योंकि उस चूहे ने अपने ही की सहायता ले ली पर हमने उसे छोडा़ नहीं,अँधा हो जाने के बावजूद भी उसे मारकर मरे... जिसप्रकार जलवाष्प की नन्हीं-नन्हीं पानीं की बूँदे भी एकत्रित हो जाने पर घनघोर वर्षा कर प्रलय ला देती है,अदृश्य हवा भी गति पाकर भयंकर तबाही मचा देता है,नदी-नाले की छोटी लहरें नदी में मिलकर एक होती हैं तो गर्जना करती हुई अपने आगे आने वाली हरेक अवरोधों को हटाती हुई आगे बढ़ती रहती है वैसे ही मैं अभी भले ही जलवाष्प की एक छोटी सी बूँद हूँ पर अगर आपलोग मेरा साथ दो तो इसमें कोई शक नहीं कि हम भारतीय फ़िर से इस दुनिया को अपनी चरणों में झुका देंगे........

और मुझे पता है दोस्त,,, मेरे जैसे करोडो़ बूँदें एकीकृत होकर बरसने को बेकरार हैं इसलिए अब और ज्यादा विलम्ब ना करो और मेरे हाथ में अपना हाथ दो मित्र............


Via my fb friend Ashish Singh...

शिक्षा व्यवस्था

*Indian Education Act -* 1858 में Indian Education Act बनाया गया 

इसकी ड्राफ्टिंग लोर्ड मैकोले ने की थी 
लेकिन उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी 
अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था T...homas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था , 1823 के आसपास की बात है ये Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है, और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे, और मैकोले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है "कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी "
इसलिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया, और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग लगा दी, उसमे पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला
1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में Higher Learning Institute हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाया जाता था, और ये गुरुकुल समाज के लोग मिल के चलाते थे न कि राजा, महाराजा, और इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी
इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं
और मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, उसमे वो लिखता है कि "इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी " और उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है
और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा
लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है
शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है
इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे
ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी
अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी
संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है
जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले की रणनीति थी ......................................................................................................

जिस यूरोप को हम आधुनिक व खुले विचारो वाला मानते हैं, आज से ५०० वर्ष पहले वहाँ सामान्य व्यक्ति 'मैरेज' भी नहीं कर सकता था क्योंकि उनके बहुत बड़े 'दार्शनिक' अरस्तू का मानना था की आम जनता मैरेज करेगी तो उनका परिवार होगा, परिवार होगा तो उनका समाज होगा, समाज होगा तो समाज शक्तिशाली बनेगा, शक्तिशाली हो गया तो राजपरिवार के लिए खतरा बन जाएगा । इसलिए आम जनता को मैरेज न करने दिया जाय । बिना मैरेज के जो बच्चे पैदा खोते थे, उन्हें पता न चले की कौन उनके माँ-बाप हैं, इसलिए उन्हें एक सांप्रदायिक संस्था में रखा जाता था, जिसे वे कोन्बेंट कहते थे उस संस्था के प्रमुख को ही माँ बाप समझे इसलिए उन्हें फादर, मदर, सिस्टर कहा जाने लगा ।


Via my FB Friend Ashish Singh

Wednesday 22 May 2013

तन्हाई

पहले तुम थी अब ये तन्हाई है
मगर तन्हाई भी तो तुम्हे ही लाई है
बन गई है मेरी
साँसों की तरह
कुछ रहे न रहे ये रहेगी
आखिरी दम तक
बेशक ज़माने ने छीन लिया है तुम्हे मुझसे
मगर ना छीन सकेगा
इस तन्हाई को
और उसमे बसी हुई तुमको
... पहले भी तुम थी,
अभी भी तुम हो
फर्क सिर्फ इतना है कि अब
सिर्फ तुम सुनती हो
कहती कुछ नहीं
कुछ पूछता हूँ तुमसे
तो याद दिला देती हो कोई गुजरी बात
और मुझे मिल जाता है
मेरे हर सवाल का जवाब

इंतज़ार

मैं कब से वो नज़र तलाश करता हूँ
ना जाने कब से तेरा इंतज़ार करता हूँ।

दिल में आये तो दरिया हो जाए
कब से वो बाकियों को दरकिनार करता हूँ।

तेरा चेहरा चाहे जुदा हो सबसे जहां में
मगर हर शख्स में तेरा ही दीदार करता हूँ।

जो मिल जाओ तुम तो मुकम्मल हो जहां
बस तुम्हारा ही यहाँ ऐतबार करता हूँ।

खून हर किसी का अब उबाल में है

कौन नहीं जानता कि वो किस हाल में हैं
गीदड़ छुपे हुए शेर की खाल में हैं

बहुत उड़ रहे थे परिंदे बन के ख़्वाबों में
नींद से जागे तो जाना पड़े नाल में हैं

चाहे लाख झुठलाने की कोशिश करे मगर
नियत उनकी भी बेईमानी के माल में है

जितना चाहे मुस्कुरा लो पैसों की भीड़ पर
... पर इस बार जनता भी तुम्हारी ही चाल में है

तूने तो कोई कसर ना रखी थी मगर
उपरवाले का रहम कब से मेरी ढाल में है

ये तो भला है कि जिन्दा हो तुम अब तक
वरना हम तो कब से मौके के ख्याल में हैं

ये समझ ले कि वक्त पूरा हो चुका है तेरा
कि खून हर किसी का अब उबाल में है

Tuesday 16 April 2013

चुनाव आते ही


मुझे पता है तुम
वही करोगे फिर से
चुनाव आते ही
वही वादे फिर से,
वही घोषणाएं फिर से
मगर नहीं समझोगे कि
दिल तोड़कर जोड़ने से
रह जाती है दरारें
झांकते हैं जिनमे से
जख्म, दर्द, हर वक्त
तन पर कपड़ा डालने से
नहीं लौट आती लुटी आबरू
ना ही अब खाना देने से
पायेगी लौट कर
उन भूखी रातों की नींद
तुम समर्थ हो
सब कुछ भूल कर
मुस्कुराने में
मगर हमने तो सहा है सब
कैसे भूलेंगे हर पल
टूटते सपनो को
अपनी मजबूरियों को
भूख से नीचे दब कर
देश के लिए कुछ ना
कर पाने की बेबसी को
मगर तुम नहीं समझोगे ये सब
करोगे ढोंग अच्छे बनने का फिर से
और भी सब कुछ वही फिर से
जो करते हो हर बार
चुनाव आते ही