कई दिनों से एक शब्द बड़ा चलन में आ रहा है राजनीती में "अंधभक्त", अब जो ये शब्द इस्तेमाल करते हैं उन्हें कौन समझाए कि भक्त तो अंधे ही होते हैं, अगर भक्त सवाल करने लग जायेगा तो वो भक्त नहीं समर्थक रह जायेगा। भक्त का मतलब ही यही कि जो हर हाल में, हर बात में, हर रूप में और हर कार्य में अपने पूज्य को ही सही माने, पूरी दुनिया एक तरफ और हमारे "आदरणीय" एक तरफ। व्यक्ति या तो भक्त हो सकता है या समर्थक हो सकता है, अंध भक्त जैसा कोई शब्द ही नहीं। अगर आप पूरी जांच पड़ताल कर के, अपने विवेक को आजमा कर किसी बात का समर्थन या विरोध करते हो तो आप इंसान हो वरना अगर बिना इन सब के समर्थन करते हो तो सिर्फ भक्त हो। व्यक्ति पूजा हमेशा ही घातक रही है और देश को डुबाने वाली रही है, यदि विचारों का समर्थन किया जाए तो कुछ उम्मीद की जा सकती है।
भक्तों ने अपने भगवान् को पाने और उनके गुणगान के भजन लिखने के सिवा क्या कभी समाज का भला किया है? भगवान् ही सब कुछ है, उसकी मर्ज़ी से ही सब कुछ होता है और वो जो करे वो सही, जैसी बातें मुझसे नहीं होती। अगर मुझसे कोई गलती हुई है तो उसकी सज़ा मुझे मिल कर रहेगी और अगर मैंने कोई मेहनत की है तो उसका फल भी जरुर मिलेगा। मैं नास्तिक नहीं बस पुरुषार्थ में यकीं रखने वाला हूँ। भगवान् मेरी मदद तभी करेंगे जब मैं खुद अपनी मदद करने लगूंगा।
समाज से अलग रह कर संन्यास ले कर भगवान् का भजन कर भी लिया तो अधिक से अधिक क्या होगा भगवान् को पा लूँगा, मगर एक तरफ एक इंसान भूखा मर रहा है और दूसरी तरफ मैं उसे ईश्वर की मर्ज़ी मान कर अपनी भक्ति में लीन रहूँ, ये मुझसे ना होगा। अगर भगवान् ने हमें जन्म दिया है तो किसी न किसी काम के लिए ही दिया होगा, न कि अकर्मण्य होकर सिर्फ उनकी भक्ति करने के लिए। दुनिया में आने का हमारा लक्ष्य सिर्फ भगवान् को पाना होता तो वो हमें इस दुनिया में भेजता ही क्यूँ, अपने पास ही क्यूँ ना रख लेता?
बड़े बड़े भक्तों के नाम मशहूर हुए हैं दुनिया में, मगर क्या किसी ने ऐसा कुछ योगदान दिया है समाज के निर्माण में जिसके आधार पर उनकी तारीफ़ की जाए? जिसने समाज की भलाई के लिए लड़ाई लड़ी उन्हें समाज सेवक कहा जाने लगा, क्यूँ क्या उन्होंने अपने वतन की, इंसानियत की और समाज की भक्ति नहीं की? उन्हें भक्त क्यूँ ना कहा जाए?
आज भी उस इंसान को बड़े आदर के साथ देखा जाता है जो रोज सुबह जल्दी उठ कर 2 घंटे भगवान् की पूजा करे, जिसे बहुत सारे भजन मुख जबानी याद हों, जो पूजा करने बैठे तो अपनी सुध बुध ही खो दे इतना तल्लीन हो जाए, मगर उस सब का फायदा क्या? भगवान् खुश हो जायेंगे या दुनिया पूजा करने लगेगी हमारी? अगर किसी भूखे को खाना खिला दिया, किसी बच्चे को पढना सिखा दिया, तो क्या भगवान् खुश नहीं होंगे, वो 2 घंटे जो किसी भजन को गाने में गुजरते हैं वही अगर किसी को भोजन कराने में लगेंगे तो यकीन मानिये भगवान् आपसे लाख गुना ज्यादा खुश होंगे और चाहे दुनिया आदर करे ना करे मगर आप खुद अपना आदर करना और खुद पर गर्व करना सीख जाओगे। हो सकता है मैं बात की शुरुआत से अब तक कहाँ का कहाँ आ चूका हूँ मगर वो हर बात जो जरुरी है भक्ति के सन्दर्भ में वो मैंने लिखने की कोशिश की है। आप भी बताइए आपकी नजर में भक्ति क्या है?