Sunday 6 November 2016

परिस्थितियों के जनक हम खुद हैं

दुःख और सुख जितना महसूस किये जायेंगे उतना ही अधिक प्रभाव करेंगे हमारे मन मस्तिष्क पर। ये सच है कि कई  चीजें हम चाह कर भी उपेक्षित नहीं कर सकते  मगर क्या हम परिस्थितियों के गुलाम हैं या परिस्थितियों के सृजक/ जनक हैं ये भी तो सोचना पड़ेगा। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, एक इंसान को नशे की लत थी उसकी पत्नी उसे किसी साधु के पास लेकर गई, उस वक्त साधु सच्चे हुआ करते थे, पंहुचे हुए जो सही मार्गदर्शन करते थे बिना किसी लोभ के, तो जब महिला ने वहां पहुंच कर अपने पति की समस्या साधु को बताई तो साधु ने पति से पूछा, बेटा एक बात बताओ तुम ये नशा छोड़ते क्यों नहीं? आदमी बोला, क्या करूँ महाराज, कोशिश तो बहुत करता हूँ पर लगता है अब छोड़ पाना मुश्किल है, मुझे लगता है मैंने नशे को नहीं नशे ने मुझे पकड़ रखा है। साधु ने बोला ठीक है ऐसा करना कल आना, अगले दिन जब आदमी साधु की कुटिया पहुंचा तो देखा महाराज एक पेड़ को पकडे हुए खड़े हैं, आदमी ने पूछा बाबा आप इस तरह से पेड़ को पकड़ कर क्यों खड़े हो, साधु बोला, बेटा मैंने पेड़ को नहीं पेड़ ने मुझे पकड़ रखा है, देखो ये मुझे छोड़ता ही नहीं। आदमी बोला, क्यों मजाक करते हो महाराज, पेड़ को तो आपने पकड़ रखा है आप जब चाहो इसे छोड़ सकते हो। तब साधु बोला, यही बात है बेटा  नशे ने तुम्हे नहीं तुमने नशे को पकड़ रखा है, तुम जब चाहे छोड़ सकते हो। 
बात अलग सन्दर्भ में कही गई थी मगर मैंने इसे जिस तरह से लिया वो ये है कि दिमाग में धारणाएं बनाने वाले हम खुद हैं, हम जिस चीज़ को जैसे देखेंगे वो वैसा ही प्रभाव करेगी हमारे दिल और दिमाग पर। हम खुद को परिस्थितियों का गुलाम समझते हैं, हम खुद को दूसरों का गुलाम समझते हैं, हम खुद को दुखों का गुलाम समझते हैं और इसी वजह ये सारी चीज़े हम पर हावी हो जाती है, वरना दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं जो हम न कर सकें। हम खुद अपने दुःख और सुख के निर्माता हैं। परिस्थितयों को बदलना हमारे बस में है, लोगों  को बदलना हमारे बस में हैं। 
जब हम पैदा हुए तो न तो कोई दोस्त था और न ही रिश्ता। धीरे धीरे हमने रिश्ते बनाये भी और निभाए भी। तो आप खुद सोचिये कि जिन लोगों से हमारी बनती है वो क्यों बनती है और हमने उन्हें कितने मौके दिए  हैं, उनकी कितनी गलतियां नज़रअंदाज की हैं, हमने कितना प्यार दिया, कितनी कोशिशें की गलतियों को स्वीकार करने की, उन्हें सुधारने की, उनकी तरफ से भी खुद की सोच के खिलाफ तर्क करने की और जब इतना कुछ हम कर सकते हैं तो यही तो किसी भी रिश्ते की नींव होता है। 
पर सच तो ये है कि हम कोशिश करना ही नहीं चाहते और इसीलिए हम दुखी होते हैं और हमसे जुड़े बाकि लोगों को भी दुखी करते हैं। जिस दिन ये बात आपके समझ आ गई कि आपको सुखी करने वाले आप खुद हो उस दिन शायद ही ऐसी कोई बात हो जो आपको दुखी करे। 

Friday 5 August 2016

दर्द का गुज़र जाना

दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना। सुना है कई बार, सच है या नहीं कभी जाना नहीं।

मैने तो हमेशा दर्द को हर पल बढ़ते देखा है मगर केवल तब तक जब तक उससे निजात पाने की उम्मीद बाकि हो। कोशिशें जारी रहती है सब कुछ ठीक करने की और हर असफलता दुःख भी देती है मगर उम्मीद ही है जो फिर से नयी कोशिश के लिए प्रेरित करती है।

जिस दिन ये उम्मीद ख़त्म उस दिन से दर्द की उल्टी गिनती शुरू। जब कुछ बदल ही नहीं सकता, जब दर्द ही नियति है तो दिल और दिमाग परिस्थितियों के साथ तारतम्य बिठाने लगते हैं, उन हालात में भी खुद को खुश रहना सिखा देते हैं। या खुद को ख़त्म करना ही रास्ता नजर आता है मगर वो समाधान नहीं केवल भागना है।

बस तय आपको करना है कि आपकी उम्मीद कितनी है, और आपकी इच्छा क्या है। अगर आप खुश रहना चाहते हैं तो रह लेंगे वरना दुनिया की कोई ख़ुशी ऐसी नहीं जो आपको खुश कर सके जब तक आप अपने दुखों को ढोते रहोगे।