Tuesday 30 July 2013

तरक्की

जब भी अपने दफ्तर जाता हूँ तो अक्सर कुछ न कुछ ऐसा नजर आ जाता है जिस पर शायद दुनिया की निगाह या तो पड़ती नहीं या फिर कोई गौर करना नहीं चाहता। खैर इन आँखों में ना जाने क्यूँ किसी की बेबसी, मजबूरी, खुद्दारी और भी ना जाने क्या क्या नजर आ जाती है और फिर अपने आप से नजरें चुराने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता। बात करता हूँ आज की। मेरे दफ्तर जाने के रास्ते में कुल 4 चौराहे आते हैं, बाकि 3 तो इतने व्यस्त और संकरे होते हैं कि किसी के खड़े होने की जगह ही नहीं बचती, मगर जो आखिरी चौराहा होता है वहां काफी जगह है। यूँ समझ लीजिये कि गाडी वालों के अलावा तकरीबन चारों किनारे मिला कर 15 भिखारी खड़े हो सकते हैं। मेरा जिस तरफ से जाना और रुकना होता है वहां अक्सर एक बूढ़ी औरत और एक  बच्चे के भीख मांगने के अलावा एक पति पत्नी हाथ में बच्चों के खिलौने लिए हुए खुद्दारी के साथ बड़ी बड़ी कारों के अन्दर इस उम्मीद से देखते हैं कि शायद आज भर पेट खाना खाने लायक पैसे मिल जाएँ, क्यूंकि मुझे नहीं लगता किसी और चीज़ के लिए उन्हें पैसों की जरुरत होगी, सड़क किनारे फुटपाथ पर ही उनका बसेरा है, जिसमे दो पेड़ों के बीच अपनी चुनरी बांध कर पत्नी अपने बच्चे को उसमे सुला कर खिलौने बेचने में पति का हाथ बटाती है ताकि तीनो का पेट भर सके। बीच बीच में तिरछी नजर से माँ बाप दोनों अपने बेटे को देख लेते हैं ताकि उसका सुरक्षा सुनिश्चित कर लें। अगर कोई गाडी वाला आकर उस पेड़ के पास खड़ा भी होता है तो दोनों की निगाहें बस उसी पर टिकी रहती है और उसके जाने के बाद ही वापस अपने काम पर लगते हैं। हैरानी की बात तो ये है कि ये सब जिस चौराहे पर होता है उसका नाम इनकम टैक्स चौराहा है क्यूंकि वंहा इनकम टैक्स भवन है। जब इनकम टैक्स विभाग का विज्ञापन आता है टीवी में कि देश की तरक्की में योगदान दें अपना आयकर समय पर चुकाएं तो बरबस ही उनकी याद आ जाती है और अपने आप से पूछता हूँ कौनसी तरक्की??  फिर याद आता है दिन ब दिन चौराहे पर रुकने वाली कारों की संख्या बढती जा रही है।

Sunday 28 July 2013

कोई कैसे यकीं कर ले

अपनी ऐशगाह में बैठ कर तुम यूँ बरगलाते हो 
खुद की रौशनी के लिए औरों का दिल जलाते हो 

बहुत मुद्दत से तुमने गरीबों की भूख नहीं देखी 
तुम तो सदा अक्ल के अंधों को ही चराते हो 

कोई कैसे यकीं कर ले अब तुम पर हर दफा
खुद ही कहते हो और खुद ही मुकर जाते हो

शक्ल तुम्हारी कुछ जानी पहचानी सी लगती है
हां तुम ही तो हर पांच साल में लौट कर आते हो

अगर कहते हो खुद को सेवक तो जरा बताओ
अपने घर पर हमेशा ही ये ताले क्यूँ लटकाते हो

सिर्फ जिन्दा लोगों को लूट लेते तो फिर भी ठीक था
तुम तो सुकून भरी लाशों के भी आशियाने चुराते हो

बहुत ढूंढा मगर नहीं मिला तुम्हारा ठिकाना
बस इतना बता दो तुम खाना कहाँ खाते हो